शारा
आलोच्य फिल्म के जरिए ‘फ्लैशबैक’ उस पुण्य आत्मा को श्रद्धांजलि दे रहा है, जिसने बॉलीवुड को अभिनय का नया मुहावरा दिया। अभिनय की उस फार्म को मैथेड एक्टिंग कहते हैं। वह पहले अभिनेता थे जिन्होंने फिल्मफेयर अवार्ड जीता था। उन्होंने अपनी जिंदगी में 8 फिल्मफेयर पुरस्कार जीते। यह रिकार्ड बाद में शाहरुख खान ने तोड़ा। हर तरह की भूमिकाओं को आत्मसात करने वाले इस अभिनेता ने करीबन 60 साल अभिनय की दुनिया में शासन किया और सिनेमाजगत को मुगल-ए-आजम जैसी फिल्में दीं। उनके फिल्मी करिअर का शानदार समय 1944 से लेकर 1999 तक था। जी हां, पाठक ठीक समझे, लीडर फिल्म के उसी अभिनेता दिलीप कुमार को भावभीनी श्रद्धांजलि, जिनका पिछले दिनों लम्बी बीमारी के बाद 97 साल की उम्र में निधन हो गया। सारा बॉलीवुड तो रोया ही, जो उनकी फिल्में देख-देखकर बड़े हुए, उनकी भी आंखों गीली हो गयीं। दिलीप कुमार पेशावर से अपने अब्बा से लड़-झगड़कर आये थे। स्वावलंबी बनना चाहते थे, मगर पुश्तैनी कारोबार में हाथ डाल कर नहीं। उनके पिता फलों के बड़े व्यापारी थे। जब पेशावर से पुणे आये तो उन्हें वहां की सेना की कंटीन में समोसे बनाने का 1200 रुपये में ठेका मिला। ठेका पूरा होते ही पैसे जेब में डालकर वह मुंबई में देविका रानी से मिले। देविका रानी बाम्बे टॉकीज की मालिक थीं। उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी में बतौर मासिक कर्मचारी रखा और मासिक वेतन था 2000 रुपये। देविका रानी ने ही उन्हें दिलीप कुमार नाम दिया। उनकी शादी सायराबानो से हुई थी। सायराबानो नसीम बानो की तीन संतनों में से एक हैं। सायरा दिलीप कुमार से 22 साल छोटी हैं। बताया जाता है कि दिलीप कुमार का क्रश नसीम बानो पर था। हालांकि, वह तीन बच्चों की शादीशुदा औरत थी। चूंकि वह नर्तकी थी, इसलिए दिलीप कुमार का अक्सर उनके घर में आना-जाना था। जमाना तो उन दिनों था ही दिलीप कुमार का, सो सायरा का लड़कपन में ही दिलीप कुमार को अपना आदर्श मानना स्वाभाविक था क्योंकि तब रोमांटिक हीरो राजेंद्र कुमार भी खूब छाये हुए थे सो सायरा बानो उन्हीं से ही शादी करने पर अड़ गयीं। मां नसीम बानो उसे समझाने-बुझाने के लिए दिलीप कुमार के घर ले आये। जब दिलीप कुमार उसे समझाने लगे तो सायरा ने उल्टा उन्हीं को प्रोपोज कर डाला। पहले तो बात हल्के में ली गयी, लेकिन बाद में नसीम और दिलीप कुमार शादी के लिए राजी हो गये। कालांतर सायरा बानो एक अच्छी पार्टनर साबित हुई। दिलीप कुमार अपने पिता की 12 संतानों में से एक थे। एक भाई को तो पाठक जानते भी होंगे। पाठकों ने अगर उनकी गंगा जमुना फिल्म देखी हो तो जो पुलिसवाला बना है, वही दिलीप कुमार के भाई नसीर खान हैं, जो फिल्म में भी उनके भाई बने हैं। दिलीप कुमार का नाम अपने जमाने की हीरोईन कामिनी कौशल के साथ भी जुड़ा। मधुबाला के साथ उनके प्यार के किस्से जग जाहिर हैं। सात साल डेटिंग के बाद उनके प्यार मुहब्बत पर विराम लग गया। मुगल-ए-आजम के बाद वे दोनों एक साथ नहीं दिखे। उन्होंने कौन-कौन सी फिल्में बनायीं, कितने सम्मान मिले यह तो उनकी मृत्यु के बाद मीडिया में काफी छपा। फ्लैशबैक में उनकी लीडर फिल्म पर बात।
लीडर फिल्म 1964 में रिलीज हुई थी। ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं’, इसी थीम पर बनी थी लीडर। आम चुनावों में किस तरह अपना डमी प्रत्याशी खड़ा करते हैं बड़े-बड़े धन्ना सेठ। राष्ट्र के नाम अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले की किस तरह हत्या करते हैं। आजादी के बाद बनी यह मूवी कितनी दूरदर्शी फिल्म थी। आज भारतीय राजनीति में यह प्रैक्टिस आम हो गयी है। तब यह मूवी शशाधर मुखर्जी ने प्रोड्यूस की थी जिन्होंने बाम्बे टॉकीज से अलग होकर अपनी प्रोडक्शन कंपनी खोली थी। लीडर फिल्म के निर्देशक थे उनके अपने बेटे राम मुखर्जी। राम मुखर्जी जॉय मुखर्जी के भाई हैं और रानी मुखर्जी के पिता। रानी वही खंडाला गर्ल, जिसने यश चोपड़ा के बेटे आदित्य चोपड़ा से शादी की है। इस फिल्म के लिए भी दिलीप कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला है। इसके गीत शकील बदायूंनी ने लिखे और उन्हें संगीत दिया है नौशाद ने। कहा जाता है कि यह फिल्म दिलीप कुमार ने ही निर्देशित की थी। बताया जाता है कि मूलकथा लेखक दिलीप कुमार ही थे तभी तो कहानी निर्देशक राम मुखर्जी की पकड़ में नहीं आ रही थी। अगर किसी बात में यह फिल्म पीछे रही है तो उसके पीछे जिम्मेवार उसका संपादन। एस. चंदीवाले ने कई सीन बेरतीबी से काट दिये और कई बेवजह रख दिये। दिलीप कुमार ने लीडर, कोहिनूर, राम और श्याम में उस समय अभिनय किया जब उन्हें डॉक्टर ने सलाह दी थी कि हल्के-फुल्के विषयों वाली फिल्मों में काम करें, जिसमें दिल टूटने वाला कथानक न हो क्योंकि उससे पूर्व कई दिल तोड़ पटकथाओं वाली फिल्में करके ट्रेजडी किंग के नाम से विख्यात हो गये थे। मधुबाला के बाद स्क्रीन पर जिस हीरोइन को उनके साथ सबसे ज्यादा पसंद किया जाता था वह वैजयंती माला ही थी। कथानक का ही लोचा है कि मध्यांतर के बाद घटनाएं तुरंत घटती हैं और फटाफट मूवी खत्म हो जाती है, मगर कुल मिलाकर लीडर मनोरंजक बन पड़ी है। छोटी-मोटी खामियां तो हर मूवी में रहती हैं जैसे दशहरे के बाद दीवाली आती है, इस फिल्म में दीवाली के बाद दशहरा आया है क्योंकि दहन के लिए खड़े रावण में आग लगने के कारण ही विलेन मरता है। जबकि इससे पूर्व दीवाली के मौके पर दिलीप कुमार वैजयंती माला के नृत्य पर बांसुरी बजाते दिखते हैं जब वैजयंती माला ‘दइया रे दइया लाज मोहे लागे’ गीत पर ठुमके लगाती हैं। यह फिल्म उस समय बनी है जब कला जगत में रियलिस्टिक पेंटिंग पेंट की जा रही थी। लिहाजा ड्रीम सीक्वेंस में भी ऐसे प्रयोग किए गए जैसे आवारा फिल्म के गीत ‘घर आया मेरा परदेसी।’ आज भी महफिलों में जब शराबी लड़खड़ाते हैं तो इसी फिल्म का गीत गाया जाता है ‘मुझे दुनिया वालो शराबी न समझो।’ यह कहानी वकालत कर रहे तथा एक टैबलॉयड के संपादक विजय खन्ना (दिलीप कुमार) के इर्दगिर्द घूमती है। वह तकरीरें करके चुनाव में खड़े प्रत्याशियों व उनके धन्ना सेठों के लिए परेशानी पैदा कर देता है। वह ऐसा व्यक्ति है जो अपनी बातों का खाता है, पढ़ा-लिखा तो वह है ही। सुनीता (वैजयंती माला) श्यामगढ़ की राजकुमारी है जो कि अपने भाई के साथ मुंबई पढ़ने के लिए आयी है। सुनीता आचार्य जी को तब जानती है जब वह तकरीर दे रहे होते हैं और उनकी रैली में बम फट जाता है। भगदड़ मच जाती है। सुनीता विजय खन्ना के भाषण पर मोहित हो जाती है। यहां पर फिल्म ने छलांग लगाई है। यहां विजय खन्ना को लॉ स्टूडेंट दिखाया है, टैबलॉयड एडिटर भी और आनन-फानन में उसकी कुड़माई भी हो जाती है, जिससे वह इनकार करता है और घर से भाग जाता है। उसके साथ उसके दोस्त भी हैं। उन दोस्तों में शालू भी है जो सुनीता का भाई है। शादी से भागकर वह रैली में जाता है। भगदड़ में वह भागते-भागते सुनीता की कार में बैठ जाता है। यहीं पर शुरुआती नोकझोंक के बाद दोनों के बीच प्यार हो जाता है। कहानी में मोड़ उस वक्त आता है जब आचार्य जी के पास दिलीप कुमार आता है और कोई हत्या कर जाता है। दोष विजय पर आ जाता है। उनकी हत्या करने वाले कोई और नहीं बल्कि उनके मुकाबले में खड़े प्रत्याशी के धन्नासेठ ही हैं। यह धन्नासेठ कोई और नहीं बल्कि सुनीता के पिता और श्यामगढ़ के राजा के दीवान महेंद्र सिंह (जयंत) है। फिल्म की तासीर अभी तक कॉमेडी की लग रही थी, अचानक थ्रिलर मूवी में तबदील हो जाती है। विजय जेल में बंद है जहां उसे सुनीता के बंदी बनाये जाने की बात पता चलती है। वह जेल से फरार होकर सुनीता को बचाता है और फिर पुलिस आ जाती है। फिर आचार्य जी के खिलाफ खड़े प्रत्याशी की चुनाव रैली में जहां महेंद्र सिंह और उसके सहयोगी भी बैठे थे, टेप लगाकर जनता को वही बातें सुनाता है जो महेंद्र सिंह ने कही थी। टेप सुनकर जनता महेंद्र सिंह और उसके साथियों पर पिल पड़ती है। अंत में रावण के पुतले पर चढ़कर उसकी मौत हो जाती है और सुनीता तथा विजय दोनों मिल जाते हैं। रैली में शामिल पुलिस महेंद्र सिंह के दोस्तों को गिरफ्तार कर लेती है।
निर्माण टीम
प्रोड्यूसर : शशाधर मुखर्जी
निर्देशक : राम मुखर्जी
गीत : शकील बदायूंनी
संगीत : नौशाद
सितारे : दिलीप कुमार, वैजयंती माला, जयंत आदि
गीत
आज है प्यार का फैसला : लता
तेरे हुस्न की क्या तारीफ : रफी
इक शहंशाह ने बनवा के ताजमहल : लता, रफी
अपनी आजादी को : मो. रफी
हमीं से मुहब्बत हमीं से : रफी
मुझे दुनिया वालो : रफी
आजकल शौक-ए दीदार : आशा भोसले, मोहम्मद रफी
दइया रे दइया : आशा, लता