शारा
वर्ष 1963 में एक फिल्म आयी थी ‘मेरे महबूब’। पटाखा फिल्म थी, जिसने सिनेमाघरों में आते ही एक तरह से तहलका मचा दिया। फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई और रिलीज होते ही उस साल बॉक्स ऑफिस पर पहला दर्जा हासिल कर लिया। कारण था युवा मन और लखनऊ की तहजीब में यार का जवां होना। इसके साथ जिस छौंक की बघार युवा व किशोर के नथुनों से नहीं उतरी, वह था अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का कैम्पस। फ्लैशबैक के बहुत से पाठकों को नहीं पता होगा कि साधना को जिस गीत ‘मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम’ के माध्यम से राजेन्द्र कुमार ने प्रपोज किया था, वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हाॅल था और अंतरा-दर-अंतरा इस गीत को जहां फिल्माया गया था वह यूनिवर्सिटी का कैम्पस ही था। युवा तो लट्टू हो गए इस फिल्म पर। जिस फिल्म के साथ युवा वर्ग जुड़ गया वह तो हिट ही समझो। नौशाद का संगीत ऐसी आंधी लाया कि सभी के सभी गीत लोकप्रिय हुए और आज तक बजते हैं। यह संगीतकार वही हैं, जिन्होंने मुगले-आज़म फिल्म का गाना ‘जब प्यार किया तो डरना क्या?’ का गीत लता मंगेशकर से बाथरूम में गवाया था। ताकि शीश महल में गूंजती वह प्रतिध्वनि रिकार्ड की जा सके। नौशाद वाद्ययन्त्रों से छेड़छाड़ करते रहते थे। पाश्चात्य संगीत वाद्यों का हिन्दी फ़िल्मों में अगर सबसे पहले किसी ने तवारूफ करवाया तो वह नौशाद ही थे। इस फिल्म को संगीत ने ही हिट कराया। युवावस्था में किसने यह गाना गाते हुए तकिये नहीं भिगोए होंगे कि ‘याद में तेरी जाग जाग के हम रात भर करवटें बदलते हैं’। यह इसी फिल्म का गाना है। जिन्होंने यह फिल्म नहीं देखी, उन प्रेमियों का तसव्वुर इस गीत के लिए और भी खूबसूरत था। यह वह दौर था जब दो प्रेमी-प्रेमिका प्यार करने को अपना निजी मामला मानने लगे थे लेकिन शादी अपने अभिभावकों की मर्जी से करते थे क्योंकि तब समाज अपने किसी और रोल में था। शायद यही मॉडल था जो फिल्म में दिखाया गया है कि बाप-दादों की कद्रो-कीमतों के सामने अपने अरमानों की परवाह न करो और अगर इन कद्रो-कीमतों में किसी एक की भी मुहब्बत आड़े आ रही है तो भी दूसरा भी प्यार का गला घोंट दे। सिचुएशन विपरीत होती थी तभी तो कालजयी गीत लिखे जाते थे और दिल छू लेने वाले सुर निकलते थे। यकीन नहीं तो आज के गीतों से तुलना कर लें। इस फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे जुबली कुमार यानी राजेन्द्र कुमार और साधना, साथ में थे पुराने जमाने की हीरोइन निम्मी और दादा मुनि यानी अशोक कुमार। एक और सुन्दर से चेहरे वाली दोसीज़ा थीं अमीता जो बाद में फिल्म का रुख पलट देती है— साधना की सहेली थीं, जिनके यहां फिल्म के हीरो किराएदार बनकर आए थे। इन्हीं अमीता को निम्मी की बराबरी में सर्वश्रेष्ठ सहायक नायिका के फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया। नौशाद तो बढ़िया संगीत देने तई सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक के लिए नामांकित हुए ही, वहीं ‘मेरे महबूब तुझे मेरी’ के लिए शकील बतौर लेखक और मोहम्मद रफी बतौर गायक के लिए भी। बतौर सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशक सुधेन्दू रॉय को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। मूवी का ओपनिंग सीन ही यूनिवर्सिटी का जाने-पहचाने रेजिडेंशियल हॉल तथा उसके साथ लगते विक्टोरिया गेट से शुरू होता है। मुस्लिम तहजीब को जिस फिराकदिली से इस फिल्म में दिखाया गया है वह बाद की फिल्मों में विरला ही देखने को मिलता है, मुगले आजम को छोड़ दें तो। अब कहानी की ओर चलते हैं- अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए अनवर हुसैन एक बुरका परस्त ख़्वातीन पर मर-मिटते हैं। चूंकि आंखों को छोड़ समूचा मुंह तो काले बुर्के से ढका होता है लेकिन अनवर हुसैन खूबसूरत युवती की आंखों पर मर-मिटते हैं और इस कदर कि जागते-उठते उनके दिलोदिमाग पर चस्पां हो जाती हैं ये आंखें। पढ़ाई पूरी करके जब अनवर मियां लखनऊ जाते हैं, वहां भी पीछा करती हैं ये आंखें। ये आंखें किसकी हैं, हुस्नां की जो लखनऊ के नामी घराने के नवाब बुलन्द अख्तर चंगेज़ी की छोटी बहन है जो लखनऊ से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने आयी है। यह उस जमाने की बात है जब बड़े घराने की लड़कियां यूनिवर्सिटी में तालीम भी बुर्के में ही लेती थी। इसीलिए तो हुस्नां का सामना जब अनवर से होता है तो वह बुर्के में ही थी। हुस्ना का रोल साधना ने किया है। वह इस रोल में बला की खूबसूरत लगी हैं। अनवर का रोल राजेन्द्र कुमार ने किया है। दोनों का यह पीरियड ऐसा था जब दोनों अपनी हिट जुबलियां दे रहे थे। हुस्नां के रोल में साधना कमाल की लगी हैं। ये हुस्नां के बुर्के का ही सदका था कि बाकायदा लड़कियों में बुर्के की मांग बढ़ गयी थी। यह वह समय था जब साधना कट के लोग दीवाने थे। जिस ट्रेन से अनवर लखनऊ अपने दोस्त बिंदाद्दीन रस्तोगी (जॉनी वॉकर) के साथ सफर कर रहे होते हैं, वहीं उसी ट्रेन में हुस्नां अपने भाई बुलंद अख्तर चंगेज़ी के साथ सफर कर रही होती है। रस्तोगी चूंकि बुलन्द अख्तर को जानता है इसलिए अनवर का तवारूफ बुलंद अख्तर से करवा देता है ताकि भविष्य में भी जरूरत पड़े तो अनवर बुलन्द अख्तर से मिल सके। बाद में जब अनवर बुलन्द अख्तर से मिलता है, अख्तर लखनऊ की एक मैगजीन में संपादक के लिए उसकी सिफारिश कर देते हैं। परन्तु साथ ही शायरी में रुचि रखने वाली हुस्नां को घर ट्यूशन भी पढ़ाने की गुज़ारिश कर देते हैं। सिफारिश के अहसान को उतारने की गरज से अनवर इस गुजारिश को मान लेते हैं और ट्यूशन पढ़ाते हुए उन्हें पता लगता है कि यह तो वही नाज़नीन है, जिसकी आंखों पर वह मर-मिटे थे। वह जिस मकान में किराएदार थे, उसकी मकान मालकिल की बेटी नसीम आरा (अमीता) उस पर मरती है और पहले-पहल अनवर भी उसे अलीगढ़ की बुर्के वाली समझ कर इशारेबाजी कर बैठते हैं जिसे नसीम सही समझ लेती है। अनवर को तो अपनी गलती का अहसास हुस्नां से मिलने के बाद हो जाता है, मगर नसीम का प्यार वैसा ही रहता है। नसीम बुलन्द अख्तर और हुस्नां की चचेरी बहन है और हुस्नां की सहेली भी। वह पुश्तैनी अमीर है और दिलफिराक भी, जिसका पता फिल्म के अन्त में चलता है। अनवर और उसकी बहन नज़्मा (निम्मी) पुश्तैनी अमीर थे लेकिन उनकी पुश्तैनी जायदाद उनके वालिद के निधन के बाद उनके रिश्तेदार डकार गए और भाई-बहिन को मक्खी की तरह निकाल फेंका। छोटे भाई अनवर को तालीम देने की खातिर नज़मा नचनिया बन गयी और उनके नृत्य के शौकीनों में शामिल बुलन्द अख्तर उनसे प्यार कर बैठा। लेकिन खानदान के सम्मान की खातिर नज़्मा से शादी को इनकार करता रहा। नज़्मा भी चूंकि बुलन्द अख्तर की विवशता समझती थी, चुप थी क्योंकि वह भी बुलन्द अख्तर को प्यार करती थी। अनवर नज़्मा को मां समान समझता था। एक दिन अनवर को नज़्मा की पेशानी चूमते हुए बुलन्द अख्तर ने देख लिया और अनवर के साथ-साथ नज़्मा से भी खफा हो बैठे। हालांकि वह अनवर के लिए नसीम का हाथ मांगने उनके घर भी गए थे। कहानी ठीक चल रही होती है कि फिल्म में प्राण साहब आ धमकते हैं और दर्शकों काे इल्म हो जाता है कि अब कुछ होने वाला है। वह बुलन्द अख्तर से हुस्नां का हाथ मांगता है जिसे बुलन्द अख्तर मना कर देता है क्योंकि बुलन्द अख्तर की नज़र में मुन्ने राजा (प्राण) अव्वल दर्जे का शराबी-कबाबी है और वह इस बिगड़ैल से हुस्नां की शादी नहीं करेंगे, भले ही उनकी हवेली बिक जाए, जिस पर मुकदमा चल रहा है और हुआ भी ऐसा। बुलन्द अख्तर मुकदमा हार गए और हवेली की बोली लगने लगी। बोली में मुन्ने राजा ने हवेली को खरीद लिया और भाई-बहिन सड़क पर आ गए। चूंकि बुलन्द अख्तर को पता चल गया था कि अनवर नज़्मा का भाई है। इस नाते बुलन्द अख्तर ने अनवर का रिश्ता हुस्नां से ठुकरा दिया, मगर उसी अनवर ने नसीमा से रिश्ता किया व नसीमा की जायदाद का मालिक बन गया और इसी जायदाद के कारण वह बुलन्द अख्तर की हवेली बचाने में सफल हो गया। यह बात अलग है अनवर से नसीम की शादी हुई ही नहीं क्योंकि घूंघट में हो हुस्नां थी। नवाब अख्तर ने बाद में वही हवेली हुस्नां को दहेज में दी और खुद नज़्मा को लेकर शहर को अलविदा कह चले। कहानी खत्म।
गीत
मेरे महबूब तुझे : लता, रफी
तेरे प्यार में दिलदार : लता
ए हुस्न जरा जाग : रफी
मेरे महबूब में क्य : लता, आशा
तुमसे इजहार-ए-हाल : रफी
जानेमन एक नजर देख : लता मंगेशकर, आशा भोसले
याद में तेरी जाग : लता, रफी
अल्लाह बचाए नौजवानों : लता
निर्माण टीम
निर्देशक/निर्माता : एचएस रावेल
गीत : शकील बदायूंनी
संगीत : नौशाद
मूलकथा व संवाद : विनोद कुमार
पटकथा : एचएस रावेल
सितारे : राजेंद्र कुमार, साधना, अशोक कुमार, निम्मी, प्राण, अमीता, जॉनी वॉकर आदि।