शारा
संगीत की उच्च शैली ने बॉलीवुड की अनेक फिल्मों को नए मुकाम तक पहुंचाया। ऐसी कई फिल्में हैं जिनमें कहानी से ज्यादा उसके गीत-संगीत की चर्चा होती है। इसी तरह की एक फिल्म है ‘मेरी सूरत तेरी आंखें।’ शैलेंद्र के गीतों को जिस गहराई का संगीत सचिन देव बर्मन ने दिया है, वह बेजोड़ है। उस पर मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर, रफी, मुकेश, लता एवं आशा की आवाज ने सोने पर सुहागा कर दिया। सचमुच इस फिल्म के गीत कालजयी बन गये। अशोक कुमार और आशा पारेख की अदाकारी भी लोगों को भा गयी और वर्ष 1963 में रिलीज इस फिल्म की चर्चा आज तक लोग करते हैं।
‘मेरी सूरत तेरी आंखें’ फिल्म न तो अशोक कुमार के लिए है और न ही यह प्रदीप कुमार के लिए बनी है और न ही इसे आशा पारेख को मुख्य रखकर बनाया है। इसने हिट, सुपर हिट घोषित होने के लिए अपनी तमाम ताकत जुटाई संगीतकार सचिन दा और गीतकार शैलेन्द्र के गीतों से। जो काम इन दो ऑफ स्क्रीन कलाकारों ने किया, वह पर्दे के कलाकार उतनी शिद्दत से न कर पाए। सचिन दा के बेटे राहुल देव के सहायक होने से सचिन दा का संगीत अमर हो गया। संगीत की गुणवत्ता जो बढ़ गयी थी। याद है न आपको मन्ना डे का गाया गीत ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई’, यह गीत अहीर भैरवी राग पर आधारित है जिसे फिल्म में प्यारे (अशोक कुमार) मृत्युशैया पर पड़े अपने पिता के संभावित वियोग में गाता है। इस गीत के बारे में मन्ना डे ने अपनी जीवनी में बड़ा प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं कि एक रात को लगभग 9 बजे सचिन दा लुंगी और स्लीवलेस बनियान पहले मेरे घर आए, जेब से नोट्स का पुर्जा निकाला, हारमोनियम की तरफ बढ़े और धुन बनाकर कहा कि यह गीत मुझे कल ही रिकार्ड चाहिए। और इस तरह इस अमर गीत का जन्म हुआ। राग भैरवी पर ही आधारित इस फिल्म का एक अन्य गीत भी है जो रफी ने गाया है, ‘नाचे मन मोरा मगन धीका धीकी धीकी’, इसमें रफी के गाने पर तबला बजाया है पंडित समता प्रसाद जी ने। फिर श्रोता रफी और लता का गाया वह गीत कैसे विस्मृत कर सकते हैं, ‘तेरे बिन सूने नैन हमारे।’ लता का ही वह गीत ‘तेरे ख्यालों में गुम तेरे ही ख्वाबों में’ संगीत की कम ऊंचाई नहीं है। सुमन कल्याणपुर व मुकेश का वह युगल गाना भी नहीं भूला होगा, जिसके बोल हैं, ‘यह किसने गीत छेड़ा।’ दरअसल ये सभी गीत ही हैं जिन्होंने सचिन बर्मन को संगीत शास्त्रीयता की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया। अशोक कुमार तारीफ़ के हकदार हैं कि उन्होंने यह संगीत जीया। दरअसल उनका अभिनय, अभिनय लगा ही नहीं। यह फिल्म निहार रंजन गुप्ता के उपन्यास ‘उल्का’ पर आधारित है। वही निहार रंजन गुप्ता, जिनके उपन्यासों का एक किरदार ‘कृति’ खूब लोकप्रिय हुआ था। यह फिल्म 1963 में रिलीज हुई थी और इसे निर्देशित आरके राखन ने किया था, जबकि संपादन विमल दा ने। इसीलिए समीक्षक इसमें कोई नुक्स नहीं निकाल पाए। लेखक ने भीतर के अंधेरे पर जोर दिया है इस फिल्म में। कि हम बाहरी सौंदर्य में इतने खोए हैं कि भीतरी सौंदर्य की कद्र करना भूल गए हैं। तभी तो अंधकार की मीमांसा नहीं कर पाते। सुरधनी प्यारे (अशोक कुमार) के मुंहबोले पिता इस बात को जानते थे इसीलिए वह अशोक कुमार के रंग पर न जाकर उसके गुणों को सराहते थे। दुनिया वाले भी प्यारे के सुरों के दीवाने थे लेकिन यह दीवानापन केवल सहानुभूति तक ही सीमित था। वह प्यारे से मुहब्बत नहीं कर सकते थे क्योंकि इसमें प्यारे की बदसूरती आड़े आती थी। फिल्म का अन्तिम सीन भी इस दुनिया की निष्ठुरता की ओर ही इंगित करता है जहां प्यारे अंधकार में खुद को समेटना चाहता है और उसके पिता उसको दिलासा देते हैं कि तुम्हारे लिए यह दुनिया बाहरी खूबसूरती के लिए नहीं है बल्कि उस आन्तरिक सौन्दर्य की दीवानी है जो तुम्हारे भीतर है, उसे पहचानो। तुम्हें अंधकार में छिपने की जरूरत नहीं है, उनको है जो तुम्हें नहीं पहचानते। यह वाकया किसी युवती द्वारा उसे धिक्कार की नजरों से देखने भर का था। तब उसे नहीं पता था कि उसके असली पिता ने भी उसे बदसूरत होने की वजह से त्याग दिया था। बताया जाता है कि प्यारे (अशोक कुमार) ने सचिन दा के संगीत खासकर ‘नाचे मन मोरा मगन’ पर काफी जीतोड़ मेहनत की थी तभी संगीत साकार हुआ। कहानी तो आधी बताई जा चुकी है फिर भी मैं पाठकों को इसका सारांश समझा देती हूं। फिल्म में राजकुमार नामक एक नकचढ़े खाते-पीते घर के अमीर व्यापारी होते हैं जो हर उस चीज से नफरत करते हैं जो उन्हें बदसूरत लगती है। जब उनकी पत्नी कमला अस्पताल में काले रंग के बच्चे को जन्म देती है, राजकुमार डाक्टर माथुर को कहते हैं कि वह कमला को बताएं कि उसे अधमरा बच्चा हुआ है। डॉ. माथुर उस बच्चे को बेऔलाद मुस्लिम दंपति रहमत तथा नसीबन को दे देते हैं जो उसकी परवरिश अपनी औलाद की तरह ही करते हैं। वे उसका नाम प्यारे रखते हैं। दुर्भाग्यवश उनके घर में आग लग जाती है। इस आग में घर का सारा सामान तो जलता ही है, नसीबन आग की ताव न सहन करके दम तोड़ देती है। रहमत प्यारे की परवरिश अच्छे ढंग से करता है और उसे गायक बनाता है। साल बीतते जाते हैं। तभी रहमत अपनी मौत से पूर्व प्यारे को बताता है कि वह एक हिन्दू है। इसकी हक़ीकत जानने के लिए प्यारे डॉ. माथुर से मिलता है और उसे अपनी असली फैमिली के बारे में पता चलता है। मगर उसे असली फैमिली से मिलाने के लिए वह प्यारे को कहते हैं कि अपने गायक होने का सबूत देना पड़ेगा। इसके लिए उसे संगीत की महफिल में गाना पड़ेगा तब शायद अमीर राजकुमार के मन में अपने बेटे के लिए प्यार जाग उठे। लेकिन डॉ. माथुर के प्रयासों को तब धक्का लगता है जब राजकुमार प्यारे को उसको जिन्दगी बढ़िया ढंग से बिताने के लिए सहायता राशि देता है। प्यारे वह राशि लौटाने के लिए राजकुमार के घर जाता है जहां उसका सामना उसकी असली मां कमला से होता है। कमला उसे कहीं जाने नहीं देती। उल्टा उसे अपना बेटा मानकर गोद ले लेती है। बाद में राजकुमार के दूसरे बेटे सुधीर का अपहरण हो जाता है। अपहर्ता फिरौती के रूप में 2 लाख रुपए (जो अब के समय 2.8 करोड़ बनते हैं) की मांग करते हैं। सुधीर की मंगेतर को शक हो जाता है कि इस अपहरण के पीछे प्यारे का ही हाथ है। क्या इस नये परिवार में भी दुर्भाग्य उसका (प्यारे का) पीछा छोड़ेगा या नहीं? इस लाख टके के सवाल का जवाब पाठक देंगे क्योंकि अब तक उन्होंने यह फिल्म देख भी ली होगी।
निर्माण टीम
प्रोड्यूसर : पंडित बैजनाथ, टीएस गणेश
निर्देशक : आरके राखन
मूल रचना : निहार रंजन गुप्ता के उपन्यास उल्का पर आधारित
पटकथा : कमर जलालाबादी, फणी मजूमदार
संवाद : सीएल कविश
सिनेमैटोग्राफी : रत्न एल. नागर
गीत : शैलेन्द्र
संगीत : सचिन देव बर्मन
सितारे : अशोक कुमार, आशा पारेख, प्रदीप कुमार
गीत
पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई : मन्ना डे, एसडी बातिश
यह किसने गीत छेड़ा : सुमन कल्याणपुर, मुकेश
तेरे बिन सूने नैन हमारे : मो. रफी, लता मंगेशकर
नाचे मन मोरा मगन : रफी
तेरे ख्यालों में गुम तेरे ही ख्वाबों में : लता मंगेशकर
तुझसे नजर मिलाने में : आशा भोसले