रेणु खंतवाल
डॉली आहलूवालिया हिंदी सिनेमा व थिएटर जगत की जानी-मानी हस्ती हैं। जिन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार के साथ-साथ तीन फिल्म फेयर अवॉर्ड और तीन नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें फिल्म बैंडिट क्वीन और हैदर में कॉस्ट्यूम डिज़ाइन के लिए और फिल्म विक्की डोनर में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। वहीं बेस्ट कॉस्ट्यूम डिज़ाइन के लिए ओमकारा, भाग मिल्खा भाग, हैदर के लिए बेस्ट कॉस्ट्यूम का फिल्मफेयर अवार्ड मिला। जिन फिल्मों में कॉस्ट्यूम डिज़ाइन कर चुकी हैं उनमें– बैंडिट क्वीन, ओमकारा, वाटर, द ब्लू अंब्रेला, लव आज कल, रॉकस्टार, भाग मिल्खा भाग व हैदर शामिल हैं। अभिनय की बात करें तो वॉटर, विक्की डोनर, लव शव ते चिकन खुराना, ये जवानी है दीवानी जैसी फिल्में शामिल हैं। हाल ही में एनएसडी रंगमंडल के कार्यक्रम में शामिल होने दिल्ली आई तो उनसे बातचीत हुई :
एनएसडी आए तो आप अभिनय के गुर सीखने थे लेकिन अभिनेत्री के साथ-साथ कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर बनकर निकले। ऐसा कैसे हुआ?
इसका श्रेय मैं अपने गुरु इब्राहिम अल्काजी साहब को दूंगी। शायद उन्होंने मेरी आंख पढ़ ली थी कि ‘तुम्हारे अंदर यह हुनर भी है तो इस पर भी गौर करो’। एनएसडी एक ऐसी जगह है जहां आपको केवल अभिनय नहीं सिखाया जाता बल्कि थिएटर के हर पहलू को सिखाते हैं। स्नातक करने के बाद मैं एनएसडी के रंगमंडल का हिस्सा रही। वहां से मुझे बहुत चांस मिले अपनी कला को दिखाने के। उसी दौरान मुझे एमके रैना, रामगोपाल बजाज, रॉबिन दास ने अपने नाटकों में कॉस्ट्यूम डिज़ाइन करने को कहा। साथ-साथ मुझे सेट डिजाइनिंग से लेकर मेकअप तक सब करने का मौका मिला।
मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का सफर कैसे शुरू हुआ?
नौ साल एनएसडी रंगमंडल में काम करने के दौरान हमने अशोक आहूजा की एक फिल्म में काम किया, छोटा रोल था लेकिन फिल्म एक्टिंग का एक फ्लेवर हमें मिला। रंगमंडल में कार्यकाल पूरा होते ही मुझे एक अच्छा ऑफर आया, एक इंडो-कनेडियन फिल्म में कॉस्ट्यूम डिजाइन का। फिल्म के लिए कॉस्ट्यूम डिज़ाइनिंग की तरफ भी मेरा गहरा झुकाव हो गया। फिर शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ में कॉस्ट्यूम डिजाइन करने का मौका मिला।
थिएटर और फिल्म के लिए कॉस्ट्यूम डिज़ाइन में अंतर क्या रहता है?
स्टेज के लिए जो रंग आप चुनते हो वो फिल्मों के लिए नहीं चुन सकते। कैमरे की आंख बहुत शॉर्प होती है। केवल कॉस्ट्यूम ही नहीं, एक्टिंग में भी बहुत अंतर है स्टेज और फिल्म की। फिल्मों में कैमरा ही आपका ऑडियंस है। जबकि थिएटर में ऑडियंस आपके सामने है।
सबसे ज्यादा चैलेंजिंग कौन सा प्रोजेक्ट रहा?
हर फिल्म की अलग-अलग तरह की चुनौती होती है। कोई मूवी आसान नहीं होती क्योंकि जॉनर कोई भी हो उस किरदार को सच्चा दिखाना है। फिल्मों में थोड़ी सी फैंटेसी का भी सहारा लिया जाता है लेकिन जितना आप किरदारों को सच्चाई के साथ पेश करेंगे उतना ही आपके लिए अच्छा होगा। हर कॉस्ट्यूम की भी एक भाषा होती है।
पुरस्कार आपके लिए क्या मायने रखते हैं?
यह पुरस्कार आपकी पीठ पर एक थापी की तरह होते हैं जो आपको प्रोत्साहित करते हैं। मैंने एक्टिंग की हो या डिज़ाइनिंग- अपनी इस लाइन से इश्क और जुनून की वजह से की। वहीं जब पुरस्कार मिलता है तो आप नतमस्तक हो जाते हैं। लेकिन अपनी टीम के बिना मैं अधूरी हूं।
एक्टिंग और कॉस्ट्यूम डिजाइन में प्राथमिकता क्या रहती है?
मेरा पहला इश्क मेरा थिएटर है, एक्टिंग है, उसके बाद कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग है। वैसे, आजकल मैं एक्टिंग में ज्यादा एक्टिव हूं।