रेणु खंतवाल
इन दिनों जो फिल्म देश ही नहीं, पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बनी हुई है उसका नाम है- द कश्मीर फाइल्स। फिल्म 200 करोड़ के क्लब में शामिल हो चुकी है और कई फिल्मों के रिकॉर्ड इस लो बजट की फिल्म ने तोड़े हैं। फिल्म के प्रोमोशन के लिए डायरेक्टर विवेक रंजन अग्निहोत्री भी भारत के विभिन्न राज्यों में जाकर जनता व मीडिया से रू-ब-रू हो रहे हैं। पिछले दिनों वे अपनी टीम के साथ दिल्ली आए थे जहां उन्होंने मीडिया के तमाम सवालों के जवाब दिए। आइए जानते हैं कि मीडिया के सवालों पर क्या कहा विवेक
रंजन अग्निहोत्री ने –
यह फिल्म रिसर्च पर आधारित है। कितना समय लगा द कश्मीर फाइल्स की मेकिंग में?
द कश्मीर फाइल्स पहली ऐसी फिल्म है जो कश्मीर नरसंहार में मारे गए लोगों के परिजनों के इंटरव्यू करके, रिसर्च करके चार साल बाद बनी है। इतनी रिसर्च और उन लोगों के साथ जिन्होंने अपनों को इस नरसंहार में खोया है उन परिजनों से लंबी बातचीत करके इसे बनाया गया है। हमारे पास चार-पांच हजार घंटों का फुटेज है जिसे हम बाद में एक सिरीज की तरह निकालेंगे। फिल्म में जो भी दिखाया, वह सच है।
कुछ लोग फिल्म का विरोध कर रहे हैं। उनका आरोप है कि यह फिल्म समाज को तोड़ने का काम कर रही है?
यह फिल्म समाज को सच दिखा रही है, दिलों को जोड़ने का काम कर रही है। जो बिखरे हुए युवा हैं उनको जोड़ने का काम कर रही है। इसमें एक सीन है जोकि फिल्म का सबसे डिफाइनिंग सीन है। कश्मीर में एक मुस्लिम लड़के ने मुझसे कहा कि हमारी बात कहीं नहीं सुनी जाती। हमारी बात सामने नहीं आती। मैंने उसे कहा कि तुम्हारे दिल में जो भी भावना कश्मीर को लेकर है, उसे एक सीन में लिखो और मुझे दो, मैं वादा करता हूं कि वो सीन इस फिल्म में होगा। और मैंने उसके लिखे उस सीन को फिल्म में ज्यों का त्यों डाला और यह सीन हमारी फिल्म का एक डिफाइनिंग सीन है। यह वही सीन है जब शिकारा में दो लोग बात करते हैं। मैं इसी तरह से काम करता हूं। दुनिया कह रही है कि हमें कैसे पता नहीं चला कि हमारे ही देश में और हमारे भाईयों-बहनों के साथ यह अत्याचार हुआ।
आप इस फिल्म की रिसर्च के लिए कई सौ लोगों से मिले। आप उन तक पहुंचे कैसे?
ग्लोबल कश्मीरी डायस के को-फाउंडर डॉक्टर सुरेंद्र कौल की मदद से हम कश्मीरी पंडितों के परिवारों से मिले। मैंने और पल्लवी ने देश और दुनिया में अलग-अलग हिस्सों में जाकर वहां बसे कश्मीरी पंडितों का दर्द सुना। और उनके लंबे-लंबे इंटरव्यू रिकॉर्ड किए। इन लोगों के बयानों पर ही यह फिल्म आधारित है।
कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह के विषय आप अब उठा रहे हैं, क्योंकि दिल्ली में जो सरकार है वह आपके अनुकूल है?
देखिए सन 2010 में मैंने ‘बुद्धा इन अ ट्रैफिक जाम’ की हैदराबाद में शूटिंग की थी। तब तो मोदी जी केवल एक स्टेट के सीएम थे। उस समय तक किसी को यह अंदाजा भी नहीं था कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे। दरअसल भारत में एक अनरिटन कॉन्स्टीट्यूशन था कि कश्मीरी हिंदुओं के बारे में बिल्कुल बात नहीं होगी। नक्सल्स के खिलाफ बात नहीं होगी। डाकुओं के खिलाफ बात नहीं होगी। हमने स्मग्लर्स को ग्लोरिफाई किया । हर तरह के आतंकियों को, देश के दुश्मनों को जस्टीफाई किया है फिल्मों में। सन 2010 में बुद्धा इन अ ट्रैफिक जाम जैसी फिल्म आई जिसने यह बोलने की हिम्मत की कि नक्सली पिछले पचास सालों से इस देश को दीमक की तरह खा रहे हैं। उसके बाद मेरी फिल्म द ताशकंद फाइल्स आई। उसके बनने की प्रक्रिया सन 2000 से पहले शुरू हो चुकी थी। द कश्मीर फाइल्स बनने की प्रक्रिया धारा 370 हटाए जाने से पहले ही शुरू हो चुकी थी। इसलिए इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग क्या कहते हैं।
इस फिल्म से सभी बड़े स्टार्स ने दूरी बना रखी है। सब खामोश हैं। आप क्या कहेंगे?
हमारे दिमाग में यह इलीट क्लास को लेकर धारणा क्यों बनी हुई है कि जब तक यह इलीट क्लास के लोग अपनी टिप्पणी नहीं देंगे कोई फिल्म हिट नहीं होगी। देखिए अब भारत बदल चुका है। इस फिल्म को जनता देख रही है। वही इसे हिट कर रही है।
कश्मीर पर अब तक कई फिल्में आई हैं। लेकिन जो विषय आपने कश्मीरी पंडितों का उठाया है उन फिल्मों ने इस मुद्दे को कभी छुआ भी नहीं। क्या वजह थी?
मैं एक ऐसी फिल्म बनाना चाहता था जोकि संवेदनशील हो और पूरी मानवता को समझ में आए। इस फिल्म की विश्व में ऐसी छवि बन रही है कि हर कोई इसे देखना चाहता है। फिनलैंड से मुझे कहा गया कि हम यह फिल्म देखना चाहते हैं। क्या कभी सोचा था कि केनिया के एक गांव के लोग इस फिल्म को देखना चाहेंगे। मेरा मकसद था पूरी दुनिया तक भारत का यह सच लेकर जाना। जो लोग इस फिल्म को लेकर आवाज उठा रहे हैं उन्हें कभी फिल्म शिंडलर्स लिस्ट पर आवाज उठाते नहीं देखा। लेकिन जो हमारे ही देश में हमारे ही भाईयों के साथ हुआ उनके ऊपर इतने सवाल उठाने को क्यों आमादा हैं?