हर्षदेव
एक बेहतरीन इंसान और लाजवाब अभिनय कला का बेजोड़ तपस्वी। हिंदी फ़िल्म जगत के चुनिंदा कलाकार बलराज साहनी के परिचय के लिए बस इतना ही पर्याप्त है। यह तो नहीं कह सकते कि उन जैसा कोई नहीं हुआ लेकिन इतना कह सकते हैं कि उन जैसा बोलने के लिए बहुत लोगों ने साधना की। बलराज साहनी अकेले ऐसे अभिनेता हैं जो मानवाधिकार की लड़ाई लड़ते हुए जेल तक गए, जिन्होंने अपने परिवार की क़ीमत पर अभिनय कला की सेवा की। मेरे सामने उनके जीवनवृत्त पर लिखी पुस्तक है जो उनके पुत्र परीक्षत साहनी ने अपनी अमिट यादों को संजोकर लिखी है। वह बताते हैं कि कैसे उनकी मान्यता अपने विश्वासों और जीवन के प्रति धारणाओं के लिए घर-परिवार की भी परवाह नहीं करती थी। कैसे वह एक जुनून के तहत काम करते थे।
पुस्तक की विशेषता यह है कि लेखक ने भावनात्मक जुड़ाव से बचते हुए अपने पिता की ज़रूरत के अनुसार आलोचना करने में भी कसर नहीं छोड़ी है। वह कहते हैं कि उनके पिता ने सादा जीवन और उच्च विचार की अवधारणा को भुलाकर एक आलीशान घर बनाया जो पूरे परिवार के लिए संताप, कष्ट और अलगाव की वजह बना।
परीक्षत शूटिंग का एक संस्मरण बताते हैं जब स्टूडियो वातानुकूलित नहीं हुआ करते थे और मुख्य कलाकारों को छोड़कर बाक़ी जूनियर अभिनेताओं को कोट और कॉस्ट्यूम पहने रखने होते थे, जिसके कारण मुंबई की बेहद उमस भरी गर्मी में उन्हें बहुत पसीना बहाना पड़ता था। तब केवल बड़े कलाकारों को ही कोट उतारने की इजाज़त होती थी। एक दिन बलराज साहनी ने एक बुजुर्ग कलाकार को गर्मी के कारण बहुत परेशान हाल देखा। शूटिंग के बीच ही जब सेट को ठीक करना था तो बलराज साहनी को कोट उतारने की इजाजत दे दी गई लेकिन उन्होंने कोट नहीं उतारा। डायरेक्टर्स ने यह देख उनसे पूछा कि आप स्वयं को क्यों तक़लीफ दे रहे हैं। इस पर साहनी का जवाब था कि यदि यहां गर्मी और उमस मेरे लिए इतनी तकलीफदेह है तो जूनियर कलाकारों के लिए कितनी मुश्किल होगी। वे भी मेरी तरह इनसान हैं।
पुस्तक में एक दिलचस्प प्रसंग ज्ञानी जैलसिंह से जुड़ा हुआ है जब वह भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ रूस के दौरे पर गए थे। इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व बलराज साहनी ने किया था। दुभाषिया भारतीय अतिथियों को नए-नए स्थान घुमाता रहा और रूस की संस्कृति और इतिहास की तारीफों के पुल बांधता रहा। जैलसिंह पूरे समय दुभाषिये की बातों को किसी मूढ़ इंसान की तरह सुनते रहे। जब ये लोग टॉलस्टॉय की क़ब्र पर पहुंचे तो दुभाषिया उसकी जानकारी देने लगा लेकिन बीच में ही ज्ञानी जी ने बोलना शुरू कर दिया। वे बोले, हां यह टॉलस्टॉय की कब्र है। उनकी अंतिम इच्छा थी कि उन्हें क्रॉस के बिना दफ़नाया जाए और उनकी क़ब्र पर कोई यादगार पत्थर न रखा जाए। चर्च ने उनको बहिष्कृत कर दिया था और वह इसी स्थान पर दफ़न होना चाहते थे।
लेखक के अनुसार, ज्ञानी जी की इन बातों को सुनकर लोग सकते में आ गए। इसके बाद जब ज्ञानी जी ने टॉलस्टॉय की क़ब्र पर हाथ जोड़े तो बलराज साहनी ने उनसे कहा कि टॉलस्टॉय कोई संत या गुरु नहीं थे तो फिर आपने हाथ क्यों जोड़े? ज्ञानी जी ने जवाब दिया, ‘अहिंसा दर्शन पर टॉलस्टॉय ने ही गांधीजी को प्रभावित किया।’
बलराज साहनी का निधन यादगार फिल्म ‘गर्म हवा’ की डबिंग पूरी करने के अगले ही दिन हो गया था। उन्होंने भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग को दिशा दी। पुस्तक को पढ़ते हुए एक इंसान, कलाकार, पति, पिता, देशभक्त और समाजसेवी के रूप में उनकी अंतरंग छवियां बार-बार मन को छू जाती हैं। उनकी अभिनीत फिल्में– दो बीघा जमीन, काबुलीवाला, गर्म हवा, वक्त, मील का पत्थर हैं, जिनको हमेशा याद रखा जाएगा।
पुस्तक : मेरे पिता की यादें : बलराज साहनी लेखक : परीक्षत साहनी प्रकाशक : मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल पृष्ठ : 240, मूल्य : रु. 450.