रमेश जोशी
अपने मिजाज के निराले कहानीकार संजीव को इस वर्ष का अकादमी अवॉर्ड दिया गया उनके उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ के लिए जो आदिवासी अस्मिता के लिए जूझती एक महिला नायिका के संघर्ष के चारों ओर बुना गया है। लेकिन वे सातवें दशक से ही अपनी कहानियों के लिए जाने और पहचाने गए।
प्रस्तुत कहानी संकलन ‘प्रार्थना’ में उनकी 1985 से लेकर आज तक के मणिपुर, महिला पहलवान आदि अप्रिय प्रसंगों तक पर लिखी गई 11 कहानियां संकलित हैं। आजकल बहुत से असहज प्रसंग हैं जिन पर लिखते अधिकतर लोग डरते हैं क्योंकि वे कहीं न कहीं उनके पीछे की मानवीय वृत्तियों के साथ ट्रीटमेंट करने में खुद को सक्षम नहीं पाते अन्यथा जीवन का कोई भी पक्ष साहित्य के लिए त्याज्य या वर्जित कैसे हो सकता है?
ऐसे में संजीव पाठक को मानव जीवन के ऐसे-ऐसे अल्पज्ञात और अज्ञात कोनों में ले जाते हैं जो घटनाओं के चित्रण के बावजूद प्रायः अदेखे रह जाते हैं। ‘प्रार्थना’ कहानी में अंगदान करने वाले की पत्नी की दृष्टि से उसके पति द्वारा विभिन्न अंग-प्राप्त व्यक्तियों से मुलाकात एक अद्भुत और असहज दृश्य रचती है जो नितांत नया है और मानव की एक से अनेक होने की क्षमता की सोच को रेखांकित करता है। ऐसे ही ‘खुली आंख’ कहानी सीमा सुरक्षा बल के अधिकारी के कठिन कार्य निर्वहन के साथ उससे जुड़े शाश्वत मानवीय संबंधों और मूल्यों उसकी ऊभचूभ सोचने को विवश करती है कि संवेदन-निरपेक्ष व्यवस्था किसी समाज का लक्ष्य नहीं हो सकता। आत्मा की सत्यान्वेषी आंखों को बंद नहीं किया जा सकता ।
‘हम न मरब मरिहैं संसारा’ में जीवन की बीहड़ता और ‘यह दुनिया अब भी सुंदर है’ की मानवता रोमांचित करती हैं। स्थानाभाव के कारण सभी कहानियों पर विचार नहीं किया जा सकता लेकिन उनके व्याप्त एक सूत्र को तो समझा ही जा सकता है।
कुल मिलाकर सामान्य जीवन की घटनाओं से होते हुए हमें एक वैचारिक और दार्शनिक जगत में ले जाने वाली संजीव की ये कहानियां एक नई तरह के आस्वाद के लिए पढ़ी जानी चाहिए।
पुस्तक : प्रार्थना लेखक : संजीव प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 166 मूल्य : रु. 250.