दिनेश कर्नाटक
कई दिन से छत की मरम्मत का कार्य टलता जा रहा था। उस दिन मिस्त्री से बात पक्की की तो उसने सीढ़ी की मांग रख दी। सीढ़ी का नाम सुनते ही माथे पर बल पड़ गए। घर में थी नहीं। किसी से मांगनी या खरीदनी पड़ेगी। दो-तीन दिन के छोटे से काम के लिए खरीदना कोई होशियारी नहीं। मगर मांगना भी मुझे पसंद नहीं। मांगने में अजीब तरह के संकोच से घिर जाता हूं।
अपना काम चलाने के लिए किसी से कुछ मांगना मुझे सही नहीं लगता। ऐसा लगता है जैसे मेरे ऊपर कोई बोझ पड़ गया है। इस मामले में मेरी सोच है कि जितना हो सके मांगने से बचा जाये। जिस चीज की जरूरत है, उसे यथासंभव खरीद लिया जाये। यदि किराये में लेने का विकल्प है तो वह किया जाये। मामूली-सा काम है और मांगने का ही विकल्प है तो दूसरे की चीज का मूल्य समझते हुए काम होते ही तुरंत वापस कर दिया जाना चाहिए। ऐसे लोग मुझे बहुत बुरे लगते हैं जो अपना काम निकल जाने के बाद दूसरे की चीज को भूल जाते हैं और मांगने पर बेशर्मी से उन्हें ही तरह-तरह की बातें सुनाने लगते हैं। जैसे ‘अरे साहब, आप तो ऐसे चिन्ता कर रहे हो जैसे हम आपकी चीज ले उड़ेंगे।’ सच कहूं तो ऐसे लोगों की कुटिलता की वजह से ही मेरी मांगने की हिम्मत नहीं होती। मैं सोचता हूं कहीं वह मुझे भी वैसा ही धूर्त न समझने लगें। मेरे लिए लेन-देन तब बुरा नहीं है जब मांगने वाला चीज का मूल्य समझे तथा देने वाले का अहसान माने कि उसने काम चलवाया तथा काम होते ही चीज को ली हुई अवस्था में लौटा दे। अगर चीज खराब हो गई है तो उसे नई खरीद कर दे।
तो साहब ढूंढ़-खोज शुरू हुई कि पड़ोस में सीढ़ी किसके यहां है। पता चलने के बाद सवाल मांगने का था। मांगने कौन जायेगा, मांगना भी हिम्मत का काम है। मुझे सही नहीं लगता तो किसे भेजा जाए। घर के लोगों से पता करना कि मांगना किसे बुरा लगता है तथा किसे कोई परेशानी नहीं होती क्या ठीक रहेगा। जब खुद ठीक नहीं लगता बच्चों को भेजना सही नहीं होगा। पत्नी वैसे ही घर के कामों में व्यस्त रहती है, उसे भेजना भी उचित नहीं। एक विचार आया कि मिस्त्री किसी मजदूर को भेज देगा, लेकिन अपने काम के लिए किसी अपरिचित को भेजना अपनी ज़िम्मेदारी से पीठ दिखाना हुआ। फिर सोचा कि घर से किसी को साथ ले लिया जाए। साथ होने से हौंसला बढ़ जायेगा। तुरंत ख्याल आया इतना डरपोक भी नहीं होना चाहिए। मांग ही तो रहा हूं चोरी तो नहीं कर रहा। अगला सवाल था कि अधेड़ उम्र का हो गया हूं, सीढ़ी खुद उठाकर लाना प्रतिष्ठा के विरुद्ध तो नहीं होगा। तुरंत किसी ने भीतर से डांट लगाई, श्रम के सम्मान की बात करते हो और एक सीढ़ी उठाकर नहीं ला सकते।
सवाल संशय तथा दुविधा खत्म होने का नाम नहीं ले रहे थे। किसी को पता चल जाये कि सीढ़ी मांगने को लेकर इस व्यक्ति के दिमाग में क्या-क्या चल रहा है तो सोचेगा परले दर्जे का भ्रमित व्यक्ति है। अब देखिये न एक अजीब सवाल यह भी उठ रहा है कि सीढ़ी मांगने जाना किस समय ठीक रहेगा। सुबह, दोपहर या शाम के समय। दिन के समय ठीक नहीं होगा। लोग देखेंगे और सोचेंगे, घर में सीढ़ी जैसी जरूरी चीज भी नहीं रख सकते। सुबह लोग कहीं जाने की तैयारी में होते हैं। बहरहाल शाम को सीढ़ी लेने पड़ोसी के घर पहुंचा। बहुत दिनों से उनसे मुलाकात नहीं हुई थी। जाते हुए सोच रहा था कहेंगे वैसे तो आते नहीं, जरूरत पड़ने पर आ गए।
हिम्मत बांधकर संकुचाते हुए उनके घर पहुंचा तो वे मेरे अनुमान को झुठलाते हुए उत्साह से मिले। इससे भय तथा संकोच जाता रहा। हाल-चाल के आदान-प्रदान के बाद मैं मूल विषय पर आ गया। कहा, सीढ़ी लेने आया हूं। थोड़ा जरूरत है। काम होते ही लौटा जाऊंगा। वे बोले, कोई बात नहीं ले जाओ, मगर काम होने के बाद यहीं दीवार पर लगाकर छोड़ जाना। मैंने कहा, बिल्कुल जैसे ले जा रहा हूं, वैसे ही रख भी जाऊंगा। दीवार के सहारे रखी सीढ़ी को उठाकर घर की ओर चल दिया। रास्ते में सोचने लगा, उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि काम होने के बाद दीवार पर रख जाना। क्या उन्हें पता नहीं कि मैं किसी से कुछ मांगना पसंद नहीं करता। मजबूरी है तो मांगने आ रहा हूं। और उन्होंने ऐसा क्यों सोच लिया कि मैं सीढ़ी को जगह पर नहीं रखंूगा। हो सकता है, दूसरे लोग ऐसा करते हों। मगर मेरे बारे में उन्होंने ऐसा क्यों कहा? एक बार देख लेते। गड़बड़ होती तो कहते। अपने पास चीज नहीं होगी तो बात तो सुननी ही पड़ेगी।
अधिकांश लोग मांग कर अपना काम चला लेते हैं। हर चीज खरीदी भी नहीं जा सकती। मैं भी समझता हूं कि लेन-देन से आपसी व्यवहार बनता है। कोई आदमी ऐसा नहीं हो सकता जिसे मांगने की जरूरत न पड़े।
सीढ़ी भी एक ऐसी चीज है, जिसकी कब जरूरत पड़ जाए कह नहीं सकते। दीवाली के दिनों में घर की सजावट करनी हो, कभी ऊंचाई पर कोई बल्ब फ्यूज हो जाए, घर में जनेऊ-नामकरण-शादी जैसा कोई काम हो, सीढ़ी की ढूंढ़-खोज शुरू हो जाती है और न मिलने पर गले में फांस जैसी लग जाती है। आदमी एकदम दबाव में आ जाता है। अपने पास न होना खलने लगता है।
कोई भी दावे के साथ यह नहीं कह सकता कि उसे कभी सीढ़ी जैसी किसी चीज की जरूरत नहीं पड़ेगी? या वह लोगों से मांगे बगैर अपना काम चला लेगा। सीढ़ी उस ऊंचाई पर पहुंचने में मदद करती है, जहां इंसान आसानी से नहीं पहुंच सकता। आप सवाल कर सकते हैं कि जिस ऊंचाई पर अपने दम पर नहीं चढ़ सकते, उस ऊंचाई की ओर जाया ही क्यों जाए? मगर आप को मानना पड़ेगा कि दुनिया में किसी भी चीज के लिए कसम खाने से काम नहीं चलता। कई मौकों पर ऊंचाई की ओर जाना जरूरी हो जाता है और कई बार नीचे उतरना पड़ता है। आप हमेशा एक ही अवस्था पर नहीं रह सकते।
जल्दी ही समझ में आ गया कि काम ज्यादा है और सीढ़ी की जरूरत लगातार बनी रहनी है। सारा काम ही सीढ़ी द्वारा होना है। एक-आध दिन की बात हो तो ठीक है। चार-पांच दिन के लिए अपने पास रखना ठीक नहीं होगा। काम ज्यादा है तो नुकसान भी हो सकता है। यह अपने उसूल के खिलाफ है। वैसे भी सीढ़ी हमेशा काम आने वाली चीज है। ऐसे में खरीदना ही ठीक होगा। बांस तथा लोहे के दो विकल्प थे। लंबी उम्र के हिसाब से लोहे का विकल्प सही लगा। वैल्डर के वहां जाने, मोल-भाव तय करने से लेकर उसे आॅटो में बांधकर घर लाने तक का काम बड़ा ही पेचीदा था। मगर उतना ही संतोष भी था कि हमारे पास अब अपनी सीढ़ी है। किसी के पास मांगने के लिए नहीं जाना पड़ेगा। सीढ़ी जंग से खराब न हो, इसके लिए उस पर प्राइमर पुतवाया। पड़ोस वालों की सीढ़ी उनके द्वारा बताई जगह पर रखकर उन्हें धन्यवाद कहा। अब हमारे पास अपनी सीढ़ी थी। हम जब चाहें छत पर जा सकते थे। ऊंचाई का कोई काम कर सकते थे।
अपनी सीढ़ी होने से एक खास तरह की आत्मनिर्भरता का अहसास हुआ। छत की मरम्मत का काम तसल्ली से हुआ। इसके बाद हम जैसे सीढ़ी को भूल गए। दीवाली में बिजली की मालाओं को लगाने के लिए सीढ़ी की जरूरत हुई। सुखद अहसास हुआ कि मांगने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ा। बाद में छत पर जाने के लिए स्थायी सीढ़ी बन गयी। सीढ़ी की जरूरत अब कम ही पड़ती थी। वह भी घर के पिछवाड़े एक ही अवस्था में चुपचाप पड़ी रहती। पीछे की ओर जाने पर उससे मुलाकात होती। उसे अपनी जगह पर देखकर खुशी तथा संतुष्टि का अहसास होता।
धीरे-धीरे एक नई चीज हुई। हमारे पास सीढ़ी होने की खबर आस-पास फैल गई। कुछ दिनों के अंतराल में कोई न कोई उसे ले जाता। मुझे भी लगता, ठीक है खाली पड़े रहने के बजाय चीज का उपयोग हो रहा है। लोगों के काम आ रही है। यह देखकर बुरा भी लगता था कि हम जिस तरह से उसका ख्याल रखते हैं, लोग नहीं रखते। लोगों के वहां जाने के बाद उसका रंग-रूप तथा आकार बदलने लगा था। यानी पेंट के छींटे पड़ते हैं तो पड़ें। गिरती-मुड़ती है तो गिरे-मुड़े। कुछ लोग पूछकर ले जाते और जगह पर रख जाते। कई तो ऐसे थे जो पूछना भी जरूरी नहीं समझते थे। उठाया और चलते बने, जैसे कोई सार्वजनिक चीज हो। ऐसे लोगों को याद दिलाना पड़ता था कि आप सीढ़ी ले गए थे, अब तक वापस नहीं कर गए। वे ऐसे देखते जैसे कह रहे हों, सीढ़ी ही तो ले गए हैं; कोई उधार तो नहीं ले गए।
समझ में नहीं आ रहा था कि जब सीढ़ी नहीं थी, तब उसके न होने के कारण परेशान था और अब जबकि सीढ़ी है तो उसके रख-रखाव के सवाल ने परेशान कर रखा था।
फिर एक जोरदार बात हुई। अब तक का सबसे अलग तरह का अनुभव।
पड़ोस के एक महाशय के यहां हमारी तरह घर की मरम्मत का काम आरंभ हुआ। उनके ठेकेदार ने भी उनसे सीढ़ी की व्यवस्था करने को कहा। महाशय हमारे वहां से बगैर कुछ कहे सीढ़ी लेकर चलते बने। गनीमत थी कि हम को पता चल गया, सीढ़ी कहां गई है। सीढ़ी उनको भी स्थाई रूप से चाहिए थी। हमें लगा, बहुत जल्दी वे हमारी सीढ़ी घर पर रख जायेंगे और हमारी तरह अपने लिए नई सीढ़ी बनाकर लायेंगे। इसके बाद सीढ़ी की बात दिमाग से चली गई।
कोई महीने भर बाद सीढ़ी का ख्याल आया। घर के लोग सक्रिय हुए तो पता चला सीढ़ी वापस नहीं आई है। समझ में आ गया कि महाशय हमारी तरह मांगने की बातों को दिल से नहीं लेते और जैसे भी हो काम निकालने पर विश्वास रखते हैं। सीढ़ी भले ही हमारे यहां काम मंे नहीं आ रही थी, मगर थी तो हमारी अपनी। जैसे घर का कोई सदस्य। उसके हाल-चाल जानने का हक तो बनता था। इतना लगाव तो चीजों से हो ही जाता है। मगर अपनी चीज होने के बावजूद हम घबराए हुए थे। क्या उनसे सीढ़ी के लिए कहना ठीक होगा? कहीं वे बुरा तो नहीं मान जायेंगे? मगर चुप भी नहीं रह सकते। सीढ़ी को देखना तो होगा ही। उसका हाल-चाल तो लेना ही होगा।
अगले दिन श्रीमती जी पूरी इनक्वारी करके आई। पता चला पहले तो सीढ़ी को दीवार पर लगाकर उसकी खूब सेवा ली गई। उसके ऊपर चढ़कर तसले सारे गए, जिससे वह पिचककर धनुषाकार हो गई। फिर पुताई में उसका उपयोग किया गया। पता चला, अब वह पहचानने में भी नहीं आ रही। ईंटों तथा बल्लियों के नीचे दबी पड़ी है।
सीढ़ी की दयनीय दशा के बारे में सोचकर दिल दुखी हो गया। पहले ध्यान गया होता तो उसकी यह हालत न होने देता। कैसे लोग हैं, जो दूसरों की चीज की बिल्कुल कद्र नहीं करते। क्या अपनी सीढ़ी के साथ भी ऐसा ही करते? हो सकता है करते। कई लोग चीजों के प्रति ऐसे ही लापरवाह होते हैं। चीजों को ही क्यों अपने जीवन के प्रति भी ऐसे ही होते हैं ?
अगले दिन जब महाशय के घर जाकर सीढ़ी को खुद अपनी आंखों से देखा तो बहुत बुरा लगा। वह बुरी तरह से ईंटों से दबी हुई थी। ऐसा लगा, जैसे मुझे दबा दिया गया हो। कैसी थी, क्या हाल बना दिया है? दिल रो उठा और ध्यान आया कि कैसे उसे बनाने के लिए वैल्डर के वहां गया, फिर कितनी सावधानी से टैंपो पर रखकर लाया, कितने मन से खुद ही जंग रोधक प्राइमर लगाया। उसका रंग, मजबूती तथा आकार-प्रकार देखकर कितना अच्छा लगा था। साथ में तसल्ली भी हो गई थी कि अब वर्षों तक सीढ़ी की जरूरत नहीं पड़ने वाली।
गुस्सा आ गया। आस-पास कोई दिखा नहीं। एक मजदूर नजर आया, ‘क्यों भाई दूसरों की चीजों के साथ आप लोग ऐसा ही बर्ताव करते हो? क्या हाल बना दिया है सीढ़ी का, ऐसे ही लाए थे? क्या पोत दिया है, इस पर? ध्यान से सुनो, इसे जिस हालत में लाए थे, उसी हालत में आज ही पहुंचा देना।’
मगर सीढ़ी उस दिन नहीं पहुंची। इरादा था, हमारी नाराजगी पड़ोसी महाशय तक पहुंच जाए। क्या पता मजदूर अपने में ही मग्न रहा हो। उसने बात एक कान से सुनकर दूसरे से उड़ा दी हो। बताया भी हो तो हो सकता है महाशय ऐसी छोटी-मोटी नाराजगियों को महत्व न देते हों अर्थात् शर्म प्रूफ हों।
अगले दिन खुद ही जाकर ईंटें हटाकर सीढ़ी निकाली। महाशय दिखे तो उनसे गुस्से में कहा, ‘आप लोग तो दूसरों की चीजों की कोई कीमत ही नहीं समझते। देख रहे हैं, सीढ़ी का क्या हाल हो गया है-पहचानने में भी नहीं आ रही?’
उन्होंने कुछ ऐसी भाव-भंगिमा बनाई जैसे कोई मामूली बात हो। कहने लगे, ‘ऐसे ही हैं ये काम करने वाले। रेता-सीमेंट बर्बाद कर मुझे भी अच्छी-खासी चपत लगा दी है।’
यानी उन्हें हमारी सीढ़ी से ज्यादा अपने नुकसान की चिन्ता थी। हमारे नुकसान का उनके लिए कोई महत्व नहीं था।
सीढ़ी की हालत सचमुच बिगाड़ दी गई थी। उसे ठोक-पीटकर सीधा करने की कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। प्राइमर लगाकर उसकी बिगड़ी सूरत को संवारा। लगा सीढ़ी से और कुछ हो न हो, लोगों का किरदार जरूर समझ में आ रहा है।
घर में सख्त घोषणा कर दी गई कि अब से सीढ़ी किसी को नहीं देनी है, जिसको बुरा लगता है लगे। कोई आए तो उससे साफ कह दिया जाए कि सीढ़ी अब काम की नहीं है, टूट चुकी है।
आप क्या सोचते हैं कि सीढ़ी अब कहीं नहीं जाती, चुपचाप अपनी जगह पर पड़ी रहती है। नहीं महाशय, समाज में रहते हुए बगैर लेन-देन के भी गुजारा कहां है? जब तक गुस्सा रहा, सख्ती रही। नियम एक-दो दिन ही चल पाया। सीढ़ी का इधर-उधर जाना फिर से शुरू हो गया। हां, अब जो भी सीढ़ी लेने आता है। उसको सुननी जरूर पड़ती है, ‘ले तो जा रहो हो, मगर जैसी ले जा रहो हो, वैसी ही वापस भी लाना और हां, जगह पर रखना मत भूलना!’