सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
समीक्ष्य पुस्तक ‘ग़ज़लकार अशोक ‘अंजुम’ शायर बालस्वरूप ‘राही’ द्वारा संपादित संकलन है, जिसमें गज़लकार अशोक ‘अंजुम’ की 101 ग़ज़लनुमा रचनाओं का समावेश है। रचनाओं के कथ्य की बात की जाए तो इसमें ख़ुदा से शिकायत, अहमियत-ए-इबादत, क़ौमी एकता के संदेश, उसूलों की हिफ़ाज़त की दुहाई, इश्क़ के मुख़्तलिफ़ रंग-रूप—यानी कि वफ़ा की लज़्ज़त, दग़ा-जफ़ा की चौखट से टकराती आहत मन की टीस, वस्ल को तड़प तो जुदाई का ग़म, के साथ ही राजनीतिक मौक़ापरस्ती पर कटाक्ष और समसामयिक समस्याओं की विवेचना, संकुचित होते रिश्तों की डोर के मर्म —को ‘अंजुम’ की लेखनी टटोलती है।
‘ज़माना कोशिशें तो लाख करता है डराने की/ तुझे जब याद करता हूं तो सारा डर निकलता है।’ ऐसे ही : ‘रात आधी देखते टीवी रहे फिर सो गए/ कल पड़ोसी लुट गया अख़बार से मालूम हुआ।’ इसी तरह : ‘कुर्सियों का गणित बिठाते हैं/ ये वतन को संवारने वाले।’
दुनियादारी के सन्दर्भ में आंकें तो ‘अंजुम’ साहब यह शे’र सच्चा नज़र आता है : ‘धीरे-धीरे सारे जग ने उनको अपनाया ‘अंजुम’/ इतनी सच्चाई से बोली उसने झूठी झूठी बात।’
समाज में औरतों और बेटियों की हैसियत , उनके दर्द पर कुछ हद तक तब्सिरा करता है यह शे’र :‘हो घोंसले में चाहे निकले किसी सफ़र पे/ देती है रोज़ कितने ही इम्तिहान चिड़िया।’
रचनाएं, किरदारों को कसौटी पर परखते हुए धार्मिक उन्माद पर कलम की पैनी नोक भी रखती हैं। भ्रष्ट तंत्र से टकराने का जज़्बा है इनमें, तो आने वाले कठिन समय के लिए भी सचेत करता है रचनाकार। मसलन :
‘कट्टरपंथी जाग रहे/ होंगे बेघर और अभी। वे इंसाफ़ मांगते हैं/ मारो ठोकर और अभी।’
नारों की आड़ में ज़मींदोज़ होते किरदारों की बख़ूबी बयानी की आवाज़ है ये पंक्तियां :- ‘वो छालों भरे पांव लेकर गए थे/ जो दिल्ली से लौटे तो कारों से लौटे।’
रचनाओं की ख़ासियत यह है कि इनमें भावपक्ष के बारीक़ तन्तुओं को छेड़ा गया है और कहन में सादा अल्फाज़ के साथ सादा बयानी को तरजीह दी गई है। कुछ रचनाओं का मीयार उम्दा है। भाषा ग़ज़ल के अनुरूप है, तो रवानगी व भाव बांधे रखते हैं।
पुस्तक : ग़ज़लकार अशोक ‘अंजुम’ संपादन/संचयन : ‘बालस्वरूप ‘राही’ प्रकाशक : सागर प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली पृष्ठ : 174 मूल्य : रु. 300.