सरस्वती रमेश
मेरे अपने घर में मेरी किताबों को छोड़ कर कुछ नहीं बचा। किसी इनसान की खोई हुई याददाश्त सी किताबें एक कोने बिसारी पड़ी हुई हैं। दुनियावी बातों से भरी किन्तु दुनियादारी से निर्लिप्त। कीट्स की कविताओं की किताब मैं हाथ में लेकर पन्ने पलटने लगती हूं। अगले ही पल कीट्स की नाइटिंगेल उड़ कर सामने आ जाती है। खोई याददाश्त के बावजूद ये किताबें कीट्स की नाइटिंगेल की तरह अमर हैं।
मैं घर के कोने-कोने जाकर देखती हूं कि कहीं कुछ पुराना मिल जाए, पर चंद कोनों को छोड़ कर पूरे घर ने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया। हां! एक पेंटिंग अब भी रखी है। जिसमें मेरा नाम लिखा है। उसके चमकते सुनहरे फ्रेम काले पड़ गए हैं लेकिन उसके शीशे के पीछे बना घर अब भी वैसा ही है। उसके काले फ्रेमों के पीछे कई चमकती यादों की नक्काशी है।
कितनी अजीब बात है कि कभी-कभी घर की बेजान चीजें हमें टुकड़ों-टुकड़ों में सही, जिंदा तो रखती हैं। अपने जरा सा होने के अहसास ने मेरे भीतर फड़फड़ा रही स्मृतियों की किताब पर जैसे पेपरवेट रख उसे तसल्ली दी हो।
बस कोई दस साल ही तो हुए हैं जब मैं यहां से गयी थी। जब गयी तब इस घर में गिनती के तीन कमरे थे। एक छोटा-सा रसोईघर अलग से। इतना छोटा रसोईघर कि अगर दो लोग उसमें घुस जाएं तो कोई भी काम कर पाना मुश्किल था। फिर भी पूरे घर में वो रसोई मुझे सबसे ज्यादा प्रिय थी क्योंकि उस रसोई में मां दिन भर रहती थी। अगर रसोई में नहीं तो उसके ठीक बगल वाले कमरे में, जिसमें फ्रीज रखा हुआ था। जैसे रसोई और वो कमरा ही मां की पूरी दुनिया हो।
स्कूल से लौटकर मैं भागती हुई उसी कमरे में पहुंचती थी और मां को गला फाड़ के आवाज लगाती। ऐसे ही। कुछ काम हो न हो। स्कूल से आकर मां का दिखना जरूरी सा लगता था। मां कहीं भी हो, दौड़ी चली आती और मेरे हाथ-मुंह धोने से पहले ही खाने की थाली ले आती। गर्मियों में अक्सर करेले की सब्जी होती। मां हमेशा मेरे लिए सब्जी अलग से बनाती। मेरी पसंद की।
सुबह स्कूल जाने से पहले मेरी जरूरत की हर चीज मां निकाल कर पलंग पर रख देती। कितना याद रखती थी मां।
अब इस घर में कितने कमरे हैं, मुझे नहीं पता। रसोई भी अब कई हैं। जिनमें से मुझे एक भी अब तक प्रिय नहीं लगी।
आंगन के जिस कोने मैंने आम का पेड़ लगाया था वहां अब छोटी भाभी का डबल बेड रखा हुआ है। पलंग के सिरहाने बनाने वाली लकड़ी पर कुरेदकर नक्काशी की गई है और उस पर चमकती पॉलिश। आम का वह खुरदुरा तना जाने कहां बिला गया होगा। किसी पॉलिश के नीचे दबा होगा या किसी की चिता पर सजा होगा पर मेरी यादों में उसकी पत्तियां अब भी हरी फड़फड़ा रही हैं। शाम को मैं अपने भाई बहनों के साथ आम के पेड़ के नीचे बैठी हूं। अम्मा ने आंगन को गोबर से लीप कर चमका दिया है और उस पर जहां तहां आम की पत्तियां गिरकर सजी हुई लगती हैं।
मैं बिट्टो, और मन्नू भाई के साथ गोल-गोल घूमकर खेल रहे हैं। हमने हाथ पकड़कर गोल घेरा बना रखा है। बीच में शब्बो है।
हम सब एक साथ गा रहे हैं-
‘हरा समंदर गोपी चंदर
बोल मेरी मछली कितना पानी’
शब्बो पैर की उंगलियों से घुटनों तक छूकर कहती है
‘यहां से लेकर इतना पानी’
हम फिर गाते हैं
शब्बो घुटने से लेकर कमर तक पानी कहती है।
हम फिर गाते हैं। और धीरे-धीरे शब्बो डूब जाती है।
शब्बो इस घर में कहीं दिखाई नहीं देती। छोटी होती तो यकीन कर लेती कि जरूर पानी में डूबकर मर गई। इसलिए कहीं दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन अब तो जानती हूं न। भागकर शादी की थी, इसलिए परिवार वालों ने उसे जीते जी मरा मान लिया।
भाइयों से अब विचार मेल नहीं खाते। जिन भाइयों से लड़ते और दोबारा मिलते देर नहीं लगती थी, उनसे एक-दो बार बहस होने के बाद सुलह की बाट में कई बरस लग जाते हैं।
अचानक सिरहाने लगा शीशा चमक कर मुझे मिट्टी के आंगन से दूर ले आया। जहां आंगन रहा करता था, वहां अब उदासी है। पहले बड़ा आंगन था, अब छोटा सा बचा है। पर वहां बैठने वाला अब कोई नहीं। घर में सदस्यों की संख्या बढ़ी है मगर आंगन किसी गहन उदासी में डूबा जाने किस गुजरे पल का शोक मनाता जान पड़ता है
लाइन से कमरे बने हैं मगर उन कमरों के बीच में मुझे वो घर नहीं नजर आता। घर में लोग बढ़े हैं लेकिन सामान उससे भी कई गुना बढ़ गया है। इन सामानों के बीच घर की आत्मा जैसे मर-सी गई है। मैं हर बार उस बिछड़े घर की तस्वीर आंखों में बसाए जाती हूं और दीवारों की कोई अनजानी शृंखला मेरा स्वागत करती है।
मैं एकांत में धकेल दिए गए उस कमरे का रुख करती हूं, जिसमें मेरी जिंदगी के अजीज दिन चांद की शफ्फाक चांदनी की तरह गुजरे थे कभी। जिस कमरे के किवाड़ सुबह पांच बजे खुलने के बाद रात दस बजे बंद होते थे। वह कमरा अब हर वक्त बन्द पड़ा रहता है। वहां मां का पुराना बड़ा बक्सा रखा है। और भी कुछ पुराने मॉडल के सेवानिवृत्त सामान हाशिये पर पड़े हैं। कमरे का पेंट अपनी अनगिनत परतों के कारण उथला और भद्दा लग रहा है।
एक बुढ़ापा मानो दीवार की दरारों में उतरकर चुपचाप टकटकी लगाए निहार रहा हो। कमरे में दरारें जरूर स्मृतियों के बोझ तले दबने से पड़ गई हैं। स्मृतियों की गीली मिट्टी को पांव से छुड़ाना तब तक मुश्किल होता है जब तक वो सूख न जाएं। सूख कर उनमें दरारें पड़ जाती हैं और फिर दरारों से मिट्टी रेत की तरह झर-झर निकल जाती है। तो क्या इस दीवार में पड़ी दरार स्मृतियों के बोझ को झार कर कम कर रही है। या खुद उनके साथ दफ़न होने का प्रयोजन है ये।
उस कमरे में उस कमरे का कुछ भी नहीं। वह स्मृतियों को धारण करने वाला एक निर्जीव बुत मात्र है। हम जैसे दो परजीवी जीव हों। इनसान कमरे के सहारे रहता है और कमरा इनसान की स्मृतियों के। मेरे तलुवे के नीचे कुछ खुरदरा-सा महसूस हुआ है। नीचे देखती हूं तो एक तरफ की जमीन धंसी हुई है। खाली कमरा भी अपना अकेलापन ढोते-ढोते गलने लगा है। बिल्कुल मेरे जैसा निकला यह तो।
छोटे घर में बहुत चहल-पहल होती है, बड़े घर में खामोशी। जैसे सारी हलचल को बेजुबान कर टुकड़ों में बांट कोनों में दबा दिया गया हो। मैं खामोशी की सड़क पर बने एक चुप में प्रवेश करती हूं। शायद किसी बोलती खिड़की की तलाश में।
मैं घर को दो हिस्सों में बांटने वाले लंबे से गलियारे में खड़ी हूं। किस तरफ जाऊं, किस कमरे की ओर आवाज़ लगाऊं। मुझे समझ नहीं आया। हर तरफ एक उदासीनता दरवाजे पर बैठी नजर आई। मैं मां के कमरे में चली गई। मां पहले से बहुत कमजोर हो गई है। उन्हें मधुमेह है। लोग मधुमेह को मीठी मौत के नाम से भी पुकारते हैं। मां के चेहरे पर अनगिनत झुर्रियां उभर आई हैं। उनके हाथों की हड्डियां मानो कटीली झाड़ियों पर कोई मांस का कपड़ा अटक गया हो। उनकी आंखों में अजीब सूनापन दिखता है मुझे। जिस पल मैंने कमरे में कदम रखे, मुझे आभास था भीतर मां है और मैं उनकी बच्ची। अब मुझे लग रहा मेरे सामने कोई बच्ची लेटी है। मैं खुद को बहुत असमर्थ महसूस करने लगी। मुझे मेरे कमरे पर गुस्सा आया, जिसने मेरे जाने के बाद मेरी मां का ख्याल नहीं रखा। मां की साड़ी उनकी देह की बजाय उनकी हड्डियों से लिपटी लगती है। मेरी आंखें छलछला उठी। दिल्ली में भी मां को याद कर मैं अक्सर रोती हूं। लगभग रोज। या दिन में कई-कई बार। लेकिन मां से मैंने आज तक नहीं बताया। हमें आज तक रोने और छिपाने की ही सीख मिली है। या शायद सब कुछ बताना मेरे परिवार का इतिहास नहीं रहा है। हम बहुत सारी बातें एक-दूसरे से नहीं बोलते। कभी-कभी तो बोलते ही नहीं। जैसे मेरे पापा। पापा से हमने हमेशा काम की बात की। काम की बात मतलब उनको सुबह-शाम खाने के लिए पूछना।
‘पापा खाना लाऊं?’
या कभी बाजार से कोई चीज मंगा लेना, ‘पापा आइसक्रीम लाना’
इससे हटकर कुछ बोलने के लिए हमें सौ बार सोचना पड़ता था। हमने आसान रास्ता चुना। बोलना ही छोड़ दिया। पापा के कहे कुछ शब्द कानों में अब भी गूंजते हैं।
‘तुमको बोलने की क्या जरूरत थी?’
‘तुम बहुत बोलती हो?’
कुछ अलग काम किया नहीं कि पापा की झिड़कियां सबसे ज्यादा मां को सुननी पड़ती थी। अपनी भी और हमारे हिस्से की भी। पापा और मां की बातचीत में पापा की ओर से गालियां अधिक होती थी। मां ने हमेशा उन्हें सुनना अपना कर्तव्य समझा। मां ने एक पूरी उम्र सुनी वो गालियां। लेकिन एक दिन शायद अपना कर्तव्य निभाते निभाते मां थक गई। अब मां और पापा में कोई बातचीत नहीं होती। अगर घर की छत न होती तो कोई नहीं कह सकता दोनों के बीच कोई जान-पहचान भी है।
मैं मां के कमरे से निकल आई हूं। पापा अपने कमरे में टीवी देख रहे। उनका एसी हर वक्त चलता रहता है। मैं उनके बगल में रखे सोफे में बैठ जाती हूं। पापा एक नजर मेरी ओर देखकर फिर मैच के पुनः प्रसारण को देखने लगते हैं। मैचों के पुनः प्रसारण न होते तो जरूर पापा चौराहे पर बैठकर गप्प लड़ाते रहते। लेकिन बाहर गर्मी बहुत है और घर में मनोरंजन का पूरा साधन भी। वो मुझसे कभी-कभी बात करते हैं। उनका बात करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। लेकिन एक बात मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। पापा बात करते हैं तो अक्सर पूछ लेते हैं, ‘घर से काम कर महीने में कितने पैसे कमा लेती हो।’ पापा के लिए पैसे की हमेशा अहमियत रही। इनसानों से ज्यादा। पापा हर बार ऐसे सवाल कर मेरी दुखती रग पर हाथ रख देते हैं। मैं हर बार चोटिल होकर रह जाती हूं। मेरे पास उनके सवाल का कोई जवाब नहीं होता। मैं एक टालू जवाब देकर वहां से हट जाती हूं।
मैं वापस उसी गलियारे में खड़ी हूं। आगे के कमरे से बर्तनों की खटपट आ रही है। मैं उस ओर मुड़ जाती हूं। आगे बड़ी मां का कमरा है। तीन बज चुके हैं। बड़ी मां अभी खाना बना रही होगी। मैं अंदर घुस जाती हूं। उसके कमरे में कपड़े फैले हुए हैं। पूरा घर देखकर लगता है कई सालों से साफ नहीं किया गया। मैं तटस्थ भाव से कमरे को देख कर बड़ी मम्मी को देखने लगती हूं। बड़ी मां ने गैस पर चाय चढ़ा रखी है। उसे अपनी भैंसों से फुरसत नहीं मिलती। वो रोज इतने बजे ही चाय पीती है और दिन ढलने से पहले दोपहर का खाना खाती है। ऐसा करीब 20 साल से चल रहा है। बड़ी मां को जब मैं बताती हूं, इतवार को वापसी का टिकट है। बड़ी मां अफसोस जताते हुए कहती है ‘अब कब आओगी।’
मैं भर्राए गले से मुश्किल से जवाब दे पाती हूं, ‘पता नहीं।’ जैसे अभी की अभी जा रही हूं। बड़ी मां कहती है ‘रक्षाबंधन पर आ जाना। त्योहार करके चली जाना।’
मैं कुछ नहीं बोल पाती। सावन लगते ही लड़कियां अपने मायके का रुख करती हैं। मेरे जेहन में यह बात कुरेद रही कि नैहर में मनाए जाने वाले त्योहार दूर देशों में ब्याही लड़कियों के लिए नहीं होते। मैंने आंसू का एक कतरा आंखों में दबोच लिया। लेकिन अपने पति के घर पर अक्सर मैं इन्हें बाहर आने से नहीं रोकती। आंसू अकेले इनसान के सबसे बड़े साथी होते हैं। मुझे इनका साथ अच्छा लगता है। बड़ी मम्मी कुछ पूछ रही है। मैं भीतर ही भीतर सुन्न पड़ गई हूं। मैंने कुछ हां, कुछ ना में सिर हिलाया और बाहर निकल गई।
मैं वापस उसी गलियारे में फिर खड़ी हो जाती हूं। एक पल को लगा कि मैं किसी और के घर में हूं। मैं गलियारे को लांघ कर सीढ़ियों के पास चली जाती हूं। अमरूद का पेड़, सीढ़ियां और पुरानी रसोई एक सीध में हैं। मैं सीढ़ियों पर बैठ जाती हूं। मेरे अगल-बगल मेरे दो पुराने साथी हैं। एक रसोई, जिसमें मां काम करती थी और दूसरा अमरूद का पेड़, जिसे मैंने लगाया था। पुरानी रसोई में अब कबाड़ भरा हुआ है। नए कमरों से रसोई कुछ नीची रह गई है। उसमें रखे कबाड़ में ढेर सारी अमरूद की पत्तियां लेटी हुई हैं। मैं झाड़ू लेकर पत्तियों को साफ करने लगती हूं। मेरा मन कर रहा मैं रसोई को पहले की तरह चमका दूं। लेकिन उसमें बहुत सारा लोहे का सामान है। जो नये कमरे बनाने के दौरान बचे होंगे। मैंने आगे-आगे रसोई साफ करके छोड़ दिया। मैं वापस उन्हीं सीढ़ियों पर बैठ गई हूं। सामने भाभी का कमरा है। लेकिन अब मैं किसी कमरे में नहीं जाना चाहती। ऐसा लग रहा सिर्फ लड़कियां पराई नहीं होती, घर भी पराया हो जाता है। मुझे इतवार का इंतज़ार है। आज शुक्रवार है। लेकिन मैंने मन ही मन इतवार की पैकिंग शुरू कर दी है। शायद ख्यालों में मैं लौटना भी शुरू कर देती लेकिन तभी ग्रेसी, परी दौड़ते हुए मेरी ओर चली आ रही हैं।
बुआ, बुआ चिल्लाती हुई। वो हंस रही हैं। खिलखिला रही हैं। इन नई बनी दीवारों को कुछ नई यादों के रंग से रंगती हुई। कुछ यादें यहां रखने के लिए, कुछ छोड़ जाने के लिए।