कृष्णलता यादव
जाने-माने साहित्यकार डॉ. जवाहर धीर के सद्य प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘अब हुई न बात’ में लघुकथाओं का मूल स्वर –सामाजिक, आर्थिक, नैतिक विसंगतियां, व्यवहारगत दोगलापन, सुरसा-मुख की भांति फैलता भ्रष्टाचार, भौतिकता की चौंध, नकार-सकार का द्वंद्व, आधुनिक संस्कृति के रेखाचित्र, भीड़ का मनोविज्ञान, रिश्तों की महक लियेे हुए है।
श्रद्धा, ताकत, भाग्य, आनन्द, प्रश्नचिन्ह, दुआओं का स्वाद आदि रचनाओं का कथांत अति प्रभावी बन पड़ा है। मां, अपना-अपना सुख, भगवान के दर्शन, हिस्सा, चन्द्रप्रकाश आदि का कथ्य दादा बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपइया कहावत को चरितार्थ करता है। चौथा प्राणी उन लोगों के गाल पर तमाचा जड़ती है जो वृद्धा मां को वृद्धाश्रम पहुंचाकर पिल्ला पालते हैं ताकि ज्योतिषी के अनुसार घर में तीन की बजाय चार प्राणी रहें और सुख-शांति का वास हो।
एक रात, सुकून, श्रद्धा, मां की खुशी, सुगन्ध, बाबूजी आदि रचनाएं अपनी संदेशात्मकता के लिए पाठक का ध्यान खींचती हैं। संग्रह की शीर्षधर्मा लघुकथा तथ्य उजागर करती है कि द्रव्याभाव में लेखन का शौक परिवारजनों के लिए आंख की किरकिरी बन जाता है, वहीं लेखन से द्रव्य की प्राप्ति उस किरकिरी को अच्छे से धो डालती है। तमाशा रचना प्रश्न उठाती है कि बहती हुई लाशों का देखा जाना तमाशा है तो तमाशा की असली परिभाषा क्या हो सकती है। कसूरवार कौन, सार्थक बहस का विषय है; यदि ऐसा हो सके तो बहुत से बेकसूर लड़के बलात्कार के जुर्म से बच सकते हैं।
दुनियावी सत्य को उकेरती इन लघुकथाओं की अन्य विशेषताएं हैं कम पात्र संख्या, सुगठित कथ्य, विषयानुसार भाषा, चित्रात्मकता, कथ्य की लघुता, आत्मकथात्मक व संवादात्मक शैली तथा अर्थपूर्ण मुखपृष्ठ किन्तु कुछेक रचनाओं में कालदोष से बचा जा सकता था। कुछ लघुकथाएं शीर्षक चयन में अतिरिक्त श्रम की मांग करती पाई गईं।
पुस्तक : अब हुई न बात लेखक : डॉ. जवाहर धीर प्रकाशक : आस्था प्रकाशन, जालन्धर पृष्ठ : 108 मूल्य : रु. 195.