दिनेश विजयवर्गीय
शहर के एक सीनियर सैकेण्डरी स्कूल के फिजिक्स व्याख्याता कमलेश का चिड़ीपुर गांव के सी.सै. स्कूल में प्रिसिंपल के पद पर प्रोमोशन हो गया। शहर से तीस कि.मी. दूर गांव के स्कूल में जाने के लिये वह उत्सुक थे कि अब वह संस्था प्रधान के रूप में अपने शैक्षिक जीवन के अनुभव से स्कूल को बेहतर रूप से चलाएंगे।
सोमवार को वह अपनी मोटरसाइकिल से चिड़ीपुर पहंुचे। स्कूल देखकर जैसी कल्पना उन्होंने की थी, वह तो पानी में खींची गई रेखा की तरह लुप्त हो गई।
स्कूल में कक्षा पहली से बारहवीं तक मात्र सत्तर छात्र-छात्रा अध्ययनरत थे। अध्यापन के लिये चार कक्षा कक्ष थे, जो जर्जर हालत में थे। पढ़ने-पढ़ाने का माहौल जैसे हाशिये में धकेल दिया गया हो। शुद्ध पानी पीने की व्यवस्था नहीं होने से बच्चे आधी छुट्टी में घर चले जाते और फिर प्रायः वह लौट कर ही नहीं आते। स्कूल में न बाबू और न चपरासी। प्रिंसिपल रूम का पता नहीं कब से साफ-सफाई नहीं हो रही थी। दीवारों के कोनो में जाले लटके हुए थे। वहां रखी टेबल की दराज में चूहे के बच्चे पल रहे थे।
उन्होंने स्टाफ के साथियों से स्कूल की ऐसी दयनीय स्थिति के बारे में पूछा तो वे बोले—‘सर, गांवड़े में कौन ध्यान देता है? यहां न कभी अधिकारी आते हैं और न गांव वालों को इसकी तरक्की के बारे में कोई लेना-देना। आप भी आये हैं तो दुखी मत होइये। बस जैसे-तैसे टाइम पास करते रहो। अपन को तो रोकड़े से मतलब है। बच्चे पढ़ने कितने आते हैं, कितने नहीं, हम इसकी चिंता नहीं करते। यहां तो ढर्रा ही ऐसा है चलेगा।’
कमलेश सर शिक्षकों की ऐसी बातें सुन मन ही मन उनकी मक्कारी भरी सोच पर सोचते रहे। उनमें स्कूल के प्रति अपनेपन का भाव तो दूर-दूर तक भी नहीं था।
गांव में शिक्षा व स्कूल की स्थिति देख, उन्हें भी लगा कि कहां शहर की सुख-सुविधा छोड़ इस अंधेरी गुफा में आ गये। वह तीन दिन तक यही सोचते रहे—कहां प्रोमोशन ले लिया, फोर गो कर देते। घर पर जब पत्नी और मित्रों से बात की तो वह भी कहने लगे—‘इससे तो बेहतर था कि प्रोमोशन ही नहीं लेते। पर अब क्या करें? रीछड़ी के पैर हाथ में आ गये। अभी तक गांवों की तकदीर कहां बदली?’
कुछ दिन पत्नी रोज प्रोमोशन वाले निर्णय को कोसती रही। ‘रोज आना-जाना, पैसों की बर्बादी। अब घर के कार्य भी सुगमता से नहीं हो पायेंगे।’
इन सब शिकवे-शिकायत व अभावों के चलते कमलेश सर एक दिन शाम को हरेभरे गार्डन में घूमने गये और एकान्त में पड़ी एक बैंच पर बैठ गये। वह अपने स्कूल के बारे में सोचने लगे। तभी उन्हें अपने अंतर्मन से एक आवाज सुनाई दी। तुम्हें ही ईश्वर ने इस स्कूल का भाग्योदय करने व बच्चों का करिअर सुधारने के लिये चयन कर भेजा है। तुम हिम्मत वाले हो, बहुत कुछ कर दिखाओगे। आखिर हर रात के बाद जीवन की मुस्कुराती सुबह होती है जो हमारे भीतर प्रेरणा-प्रोत्साहन का उजाला भर देती है। हमें हर दिन एक नये विश्वास के साथ जीना सिखाती है। बादलों के पीछे भी सूर्य की रोशनी सदा छिपी रहती है। ऐसी आत्मविश्वास जगाने वाली बातें उसके अंतर्मन में बैठ उन्हें प्रेरणा प्रोत्साहन दे रही थीं।
दूसरे दिन ही उन्होंने स्कूल की प्रगति, बच्चों का नामांकन सुधार तथा बेहतर पढ़ाई की योजना बनाई। योजना के क्रियान्वयन के लिये धनराशि जुटाने हेतु गांव के प्रबुद्धजनों, जनप्रतिनिधियों एवं प्रशासन के सहयोग की रूपरेखा तैयार की। कमलेश का विचार था कि करवट बदलने से रस नहीं आता, आयाम बदलना चाहिये। सर ने स्कूल सुधार की क्रमिक योजना पर गांव वालों से बातचीत की, सब लोग सहमत हुए।
कमलेश ने यह निर्णय कर लिया कि वह प्रतिदिन स्कूल समय से आधा घंटा पहले पहुंचेंगे। अपने हाथों से स्कूल की साफ-सफाई करेंगे। वह यह जानते थे कि सफलता पुरुषार्थ, धैर्य सकारात्मक सोच से ही संभव है। जहां चाह होती है, वहां राह भी निकल ही आती है। सूरज की तरह चमकने के लिये सूरज की तरह तपना होता है। उन्होंने स्कूल सुधार की चुनौती को स्वीकारा। आखिर उन्हें इस स्कूल का ऐसा कायाकल्प करना है, जिससे इसकी गिनती जिले के अच्छे स्कूलों में हो सके। अधिकारी यहां की विजिट कर स्कूल भवन व यहां की पढ़ाई तथा अन्य गतिविधियों से प्रसन्न होकर इस स्कूल का उदाहरण अन्य स्कूलों में जाकर दें।
जब संस्था प्रधान स्कूल के प्रति समर्पित होकर काम करने लगे तो जो स्टाफ आलसी, टालमटोल व सुविधाभोगी हो गया था, वह भी क्रियाशील होने लगा। स्कूल अब पूरे टाइम खुलने लगा।
प्रिंसिपल सर ने बच्चों का नामांकन बढ़ाने के लिये गांव में जाना शुरू कर दिया। वह वहां बुजुर्गों, प्रबुद्धजनों व सरपंच से मिलने लगे और स्कूल विकास की चरणबद्ध योजना पर बातचीत करने लगे। गांव वालों को भी लगा कि आज कोई संस्था प्रधान है जो पहली बार गांव वालों से स्कूल की प्रगति की बात कहने आया है।
इधर कुछ ही दिनों में उनकी मेहनत व सूझबूझ रंग लाने लगी। बच्चे पूरे समय के लिये स्कूल आने लगे। हर पीरियड में पढ़ाई होने लगी। कुछ और नये टीचर्स के लिये प्रयास किया तो वह भी स्कूल से जुड़ गये।
हैण्डपम्प में मोटर लगवाकर पेयजल व्यवस्था की। टंकी बनवाकर उनमें टोटियां लगवा दीं। पेयजल की सुविधा हो गई। अब बच्चों का स्कूल में ठहराव होने लगा। जो बच्चे पूर्व में स्कूल छोड़ अन्यत्र निजी स्कूलों में पढ़ने चले गये थे, वे भी धीरे-धीरे लौटने लगे।
गांव वालों की प्रिंसिपल सर के प्रति आस्था जगने लगी। दानदाताओं ने स्कूल के प्रति आश्वस्त होकर दान की थैली को खोलना शुरू कर दिया। विद्यालय विकास की सीढ़ियां चढ़ने लगा तो गांव के सरपंच, सरकारी योजना, भामाशाह एवं स्वयं व स्टाफ के आर्थिक सहयोग से समय की जरूरत अनुसार वहां आर.ओ. तथा वाटर कूलर लगवाये। स्कूल के पास एक तलाई थी जो वर्षा जल से भर जाती थी, उसे बच्चों की सुरक्षा को देखते हुए मिट्टी डालकर भरवा दिया। पौधरोपण कर के वातावरण हराभरा बनाया गया।
स्कूल परिसर छोटा था जबकि इसके हिस्से की पहले पर्याप्त भूमि थी। लेकिन दबंगों ने आठ बीघा जमीन पर अतिक्रमण किया हुआ था। अतिक्रमियों को समझा-बुझाकर तथा सरपंच के सहयोग से वहां से अतिक्रमण हटाया गया। अब बच्चांे के खेलने व नये कमरे बनाने के लिये पर्याप्त जमीन उपलब्ध हो गई। यद्यपि इस प्रकरण में प्रिंसिपल सर को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। उनसे बुरा-भला भी स्कूल हित में उन्होंने सुन लिया।
शहर के भामाशाहों ने स्कूल में सर्दी से बचने के लिये तीन वर्ष तक ऊनी जर्सियां उपलब्ध करवाईं। अब अधिकारी भी वहां पहुंच कर स्कूल में जो कुछ सुधार हुआ, उसकी प्रशंसा कर प्रिंसिपल सर को बधाई देने लगे।
नामाकंन बढ़ा तो स्टाफ भी बढ़ा। कमरे बने। रंगाई-पुताई हो गई। बाहर गेट पर स्कूल के नाम का बोर्ड लगवाया। साफ-सफाई ऐसी कि वहां कागज का एक टुकड़ा भी नहीं मिले। पढ़ाई का स्तर गुणवत्तापूर्ण होने से दसवीं बोर्ड परीक्षा का परिणाम तीन वर्षों से शतप्रतिशत रहने लगा। सचमुच यहां वह बात पूरी हो रही थी—‘हेडमास्टर बदल दो स्कूल बदल जाएगा।’ अब गांव के सभी बच्चे स्कूल से जुड़ गये। शिक्षा की दृष्टि से पंचायत को उजियारी पंचायत घोषित किया गया। राज्यस्तर पर फाइव स्टार श्रेणी में इस स्कूल का नाम गर्व से लिया जाने लगा।
अब अपनी चमत्कारी उपलब्धियों से कमलेश सर ने जिला शिक्षा अधिकारी की गुड लुकिंग में स्थान बना लिया। उन्होंने अपनी मेहनत, लगन और कुछ बेहतर कर जाने के संकल्प से स्कूल को जीरो से हीरो बना दिया। उन्हें श्रेष्ठतम् कार्य के लिये जिला स्तरीय शिक्षक दिवस पर सम्मानित किया गया। एक सामाजिक संस्था ने भी उन्हें सम्मानपत्र से नवाजा।
प्रिंसिपल कमलेश सर के चिड़ीपुर में चार वर्ष पूरे हुए थे कि उनका ट्रांसफर एक उपखण्ड स्तर के बड़े कस्बे में हो गया। वह अपना ट्रांसफर करवाने किसी नेता के पास नहीं गये। उनकी सोच थी कि वह जहां भी रहेंगे, अपना सर्वोत्तम प्रस्तुत करेंगे। कक्षा में बैठे बच्चे और उनके अभिभावक हर शिक्षक से श्रेष्ठतम् की चाह रखते हैं। शिक्षा अधिकारी भी अब उनसे यही अपेक्षा रखने लगे कि उन्हें कहीं भी लगा दें, वह अपने सच्चे मन से बेहतरी के लिये काम करेंगे।
प्रिंसिपल सर के ट्रांसफर की बात जब गांव में पहुंची तो लोग दिल से दुखी होने लगे। लगा जैसे उनका अपना कोई परिवार से बिछुड़ रहा है। वहां के प्रबुद्धजन तो यह कहते नहीं थकते कि ईश्वर की कृपा और गांव के भाग्य से कोई यहां देवदूत आया था, जिसने स्कूल को कंचन बना दिया।
सरपंच व गांव वालों ने उनका विदाई समारोह अपने गांव के मन्दिर परिसर में रखा। उनके समर्पित सेवाओं के लिये कई लोगों ने कृतज्ञता प्रकट की। प्रिंसिपल सर को मालाएं पहनाईं, साफा बंधवाया और कई यादगार उपहार दिये। पंचायत की ओर से अभिनन्दन पत्र दिया गया। उन्हें गाजे-बाजे के साथ घोड़ी पर बिठाकर पूरे गांव में घुमाया। सर भी अपना ऐसा मान-सम्मान देख गद्गद हो गये।
जब वह स्कूल से जाने लगे तो ग्रामीण, बच्चे व स्टाफ की आंखों में आंसू भर आये। सब यही कह रहे थे कि ईश्वर ने इस गांव में कर्मवीर सर को भेजा, जो सदा यादों में बने रहेंगे—आया था कोई देवदूत।